Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 76
________________ संसार के सारे संबंध आरोपित हैं । तुम्हारी कल्पनाओं से कल्पित हैं। मनुष्य एक गहरी भ्रांति में जी रहा है, सच्चाई मानकर कि यहाँ सब कुछ मेरा है। आपकी पत्नी है, उस पर आप जी-जान दिये जा रहे हैं, उसके लिए कुर्बान हो सकते हैं खुद । ऐसा लगता है जैसे उसके बिना आप जी ही नहीं सकते हैं। पर यदि एक दिन किसी पुरानी किताब में दबा हुआ कोई पत्र आपको मिल जाये और आपको पता चल पड़े कि किसी से तुम्हारी पत्नी का प्रेम रहा है तो तुम डांवाडोल हो जाओगे। एक क्षण में तुम्हारी ममत्व-बुद्धि गिर जायेगी और तुम्हें ऐसा लगेगा जिसे मैं मेरी' कह रहा था, वह मेरी नहीं किसी और की है- 'यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता।' आरोपण मेरेपन का है। जहाँ यह आरोपण जुड़ गया, वहाँ लगता है कि सब कुछ यही है। फिर उसके लिये दुःख भी झेल लिये जायेंगे और जहाँ मेरापन हटा, वहाँ लगता है जैसे सब कुछ टूट गया, अलग-थलग हो गया। सब कुछ आरोपित है। जो लोग जीवन की गहराई तक गये हैं, उन्होंने पाया है कि मेरेपन में जीने वाले मनुष्य का इस जगत में कुछ भी मेरा नहीं है । और सबको छोड़ो, यह तुम्हारा शरीर भी तो तुम्हारा आ वह भी तुम्हें तुम्हारे माता-पिता से मिला है। उन्हें भी उनके माता-पिता से मिला था। 'पर' के निमित्त से देह मिली और अंततः इसका समापन भी 'पर' पदार्थ में ही होगा। अगर अपने जीवन के अस्तित्व को खोजने जाओगे तो तुम्हें पता चलेगा कि लाखों-करोड़ों वर्ष की तुम्हारी यात्रा है। न हड्डी तुम्हारी, न मांस है, न मज्जा है, कुछ भी नहीं है इनमें, जिसे तुम अपना कह सको। सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो। इस 'तुम' का अनुभव करने के लिए मेरेपन की परतों को उघाड़ना पड़ेगा। तुम्हारी-आत्मा के चारों ओर ये परतें परदे बनकर खड़ी हैं। प्रत्येक व्यक्ति मेरेपन को हटाने की कोशिश करे। 'नेति-नेति' यह भी नहीं, वह भी नहीं। संबंध को यह सोचकर हटाते जाएँ और जब परतें उघड़ जाएँगी, तब अनुभव कर पाओगे मेरे' भीतर छिपे हुए 'मैं' को। जैसेजैसे मेरेपन' से तुम्हारा छुटकारा होगा, वैसे वैसे तुम स्वयं के करीब पहुँचोगे और जैसे-जैसे मेरेपन का फैलाव होगा, स्वयं से दूर होते जाओगे। मेरेपन का जितना विस्तार है, 'मैं' की अनुभूति, उतनी ही क्षीण रहती है। आप महावीर के जीवन के बारे में जानते हैं। आखिर क्या वजह थी कि उन्हें राजमहल छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा? सब कुछ तो था उनके पास, पर महावीर ने आत्यंतिक कोशिश की, 'मेरे' से मुक्त होने की। राजमहल छोड़ा, परिवार छोड़ा। छोड़ते-छोड़ते अंतत: वस्त्रों को भी छोड़ दिया, ताकि 'यह वस्त्र मेरा' यह कहने का भी मौका ही न मिले। मेरेपन' को तोड़ना, 'मैं' से जुड़ना है, 'मेरे' को जोड़ना 'मैं' से अलग होना है। 'मैं' का अर्थ आत्मा है, सहजानंदी शुद्ध स्वरूपी अविनाशी आत्मा। मेरे का सारा जाल कल्पनाओं से कल्पित है, सत्य और सुख का आभास भले ही हो, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है यह । सत्य है—'मैं', 'आत्मा' और असत्य है- 'मेरापन' तथा 'आसक्ति'। मेरा जो असत् है, उस असत् का कहाँ से जन्म होता है और कहाँ अंत होता है ? हकीकत में, 'मेरेपन' का जन्म हमारे भ्रम से होता है और उसका समापन हमारे भ्रम के टूट जाने से होता है। जो कुछ हमने 'मेरा' मान रखा है, उसे सिवाय भ्रम के क्या कह सकते हैं ? जैसे कहीं अंधेरे में रस्सी पड़ी है और जैसे ही आपके पाँव की ठोकर लगी, रस्सी में हलचल हुई और आप चिल्ला पड़े—'साँप'! फिर लालटेन लेकर वहाँ आये, तो पता लगा Jain Education International 77 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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