Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 79
________________ पूर्ति के लिए ही जीता आ रहा है। अपनी आत्मा के साथ वह लगातार प्रवंचना कर रहा है। बेहोशी में बहुत जी लिये, अब तो जागो । अब भी आँख न खुली, आसक्ति से छुटकारा नहीं पाया तो हालत और खराब होने वाली है। जब जागो, तभी सवेरा है, लेकिन जब जागोगे तभी तो काम चलेगा। आदमी ने आसक्ति और सम्मोहन के चलते अपनी आकांक्षाएँ इतनी बढ़ा ली हैं कि उन्हें देख-देखकर मुझे तो हँसी आती है। केवल मधुरता के प्रति आसक्ति हो तो चलेगा, लेकिन आदमी तो कड़वाहट के प्रति आसक्त है । सम्मोहन के कितने-कितने तार बँधे हैं ! सम्मोहन तो समाप्त नहीं होगा, हाँ, जिन्दगी जरूर समाप्त हो जाएगी। जादूगर अपना जादू दिखाने के लिए दर्शकों को सम्मोहित करता है ताकि वह जो बोले, दर्शकों को वैसा ही नजर आए। हमारी दशा वैसी ही हो गई है। हमें जड़ पदार्थ के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता । मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आसक्ति अगर पूरी तरह समाप्त न हो सके तो आप सम्मोहन को कम करने का प्रयास जरूर करें । आदमी का पुद्गल पदार्थों के प्रति सम्मोहन जैसे-जैसे कम होता जाएगा, वह आत्मा की यात्रा शुरू करने योग्य होता जाएगा। एक बार यह यात्रा शुरू करने की देर है, फिर मंजिल ज्यादा दूर नहीं होगी। सम्मोहन खत्म नहीं हुआ तो पूरी जिन्दगी भले ही आराधना, सामायिक कुछ भी करते चले जाना, पर आत्म-बोध उपलब्ध नहीं कर सकोगे । जिस व्यक्ति पर जिस चीज का सम्मोहन हावी है, वह उसी के बारे में सोच-सोचकर जिन्दगी गुजार देगा। सामायिक में बैठेगा तो भी उसका ध्यान इसी में रहेगा कि पास वाले मकान के मालिक को कैसे नीचे गिराया जाए ? औरतें बैठीं तो हैं प्रवचन में, मगर सोच रही हैं कि आज चतुर्दशी है, घर जाकर कौन-सी सब्जी बनाऊँ? हाथ में माला घूम रही है, मगर मन कहीं और ही यात्रा कर रहा है। व्यक्ति मंदिर में बैठा पूजा कर रहा है और मन में सोच रहा है कि दुकान में अमुक माल कम हो गया है अत: उसका ऑर्डर भेजना है। मंदिर में भी संसार का सम्मोहन उस पर हावी रहता है । जब तक सम्मोहन हावी रहेगा, आदमी मंदिर तो जाएगा, लेकिन वास्तव में वह दुकान में ही बैठा होगा। उसका शरीर मंदिर में होगा, मगर मन दुकान में रहेगा। इसलिए कहता हूँ कि मंदिर जाओ, गुरु के पास जाओ या सामायिक करो तो तीन कार्य करना अर्थात् बहरे हो जाना, आँखें बंद कर लेना और मुँह को ताला लगा लेना । ठीक महात्मा गांधी के बंदरों की तरह । बहरे इसलिए हो जाना, ताकि आसपास बैठे लोग क्या बोल रहे हैं, तुम्हें सुनाई न दे। अंधे इसलिए हो जाना, क्योंकि भगवान या गुरु को भीतर की आँखों से देखना है, ताकि परमात्मा के अलावा और कुछ न दिखे और गूंगे इसलिए ताकि किसी से वार्तालाप न करना पड़े। वार्तालाप हो तो सिर्फ उस परम सत्ता के साथ, जिसके लिए होठों को हिलाने की कोई आवश्यकता नहीं होती । महावीर जिसे प्रज्ञा का नेत्र कहते हैं, उसे शिव का तीसरा नेत्र भी कहा जाता है। जब तक यह नेत्र नहीं खुल जाता, तब तक व्यक्ति मंदिर जाकर बाहर से तो प्रतिमा को निहार लेगा, लेकिन प्रतिमा में छिपे हुए परमात्म-तत्त्व को नहीं पहचान पाएगा, उससे साक्षात्कार नहीं कर पाएगा। प्रज्ञा का नेत्र जाग्रत होने पर ही भीतर Jain Education International 80 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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