Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 93
________________ देकर कह सकते हैं कि हमारा देश धार्मिक है, पर हकीकत में हमारा देश आध्यात्मिक नहीं बल्कि साम्प्रदायिक बनता जा रहा है। हम सम्प्रदायों में उलझते जा रहे हैं । साम्प्रदायिक कट्टरता के कारण लोग आपस में कट-मर रहे हैं। देश में धर्म का जाल-सा फैला हुआ है। एक पड़ौसी जैन, तो दूसरा बौद्ध, तीसरा सिक्ख, तो चौथा मुसलमान । बहुधा मन में भाव पैदा होता है कि आखिर वास्तव में धर्म है क्या? धर्म वह है जो आदमी को जीवन जीना सिखाता है। आपस में प्रेम, श्रद्धा, सद्भाव से रहना सिखाता है। धर्म चित्त की शुद्धता है। धर्म अंतर की निर्मलता है यदि धर्म हमें भीतर से निर्मल नहीं करता, शुद्ध नहीं करता, तो वह धर्म अपूर्ण है। हमने धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ से लगाकर उसे एक आले में स्थापित कर दिया है। धर्म इससे बढ़कर है। धर्म हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाता है । वैर-भाव छोड़ना सिखाता है। प्रेम और प्यार की सीख देता है। मनुष्य के मन से वैर-भाव आसानी से नहीं जा पाता । वैर और वैमनस्य की प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं व रहरह कर सिर उठाती हैं। सामायिक कर ली, प्रतिक्रमण कर लिया मगर अपनी प्रवृत्तियों का शमन नहीं कर पाए तो सब बेकार गया। न जाने कितनी बार तुम क्षमापना पर्व मना चुके हो, मगर भीतर क्षमा उत्पन्न नहीं हुई। क्षमा मांगने के बावजूद वैर जिंदा रहा तो फिर क्या लाभ हुआ क्षमापना का? जब तक हमने अपने भीतर की दरारों को ठीक नहीं किया तो ऊपर-ऊपर से की गई क्षमापना ढोंग मात्र होगी। दुर्भाग्य यह है कि हम समाज में सिर्फ अपना वैभव दिखाने के लिए आते हैं, अपना अहंकार साथ लेकर आते हैं। जब तक हमारा अहंकार समाप्त नहीं होगा, कोई धर्म हमें धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं बना सकेगा, हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकेगा। हम चाहे कितने भी मासक्षमण कर लें किन्तु यदि भीतर का वैर-भाव नहीं जाएगा तो हम परिशुद्ध नहीं हो पायेंगे। हमारी तपस्या भी केवल दिखावटी बनकर रह जाएगी और जीवन में कोई बदलाव नहीं आ पाएगा। हमें धर्म को बारीकी से जाँच कर उसे न केवल समझना होगा, बल्कि उसे जीवन में भी उतारना होगा। सामायिक करो तो सामायिक के बाद जब उठो, पांच मिनट विचार करना कि सामायिक के दौरान हमारे मन में किस-किस के प्रति कषाय के भाव आए, क्रोध या घृणा के भाव आए। अगर ये प्रवृत्तियाँ जारी रहीं तो इसका अर्थ यह हुआ कि सामायिक सार्थक न हुई। घर में सामायिक करने बैठे और रसोई में दूध गर्म हो रहा था। दूफ उफन कर भगोने से बाहर निकला तो आप सामायिक छोड़कर भागे। इसलिए पहले जरूरी है कि मन की प्रवृत्तियों को शांत करें, फिर सामायिक करने बैठे। हम मौन तो रख लेते हैं, लेकिन भीतर शांति नहीं रख पाते । वहाँ वार्तालाप चलता रहता है। जीवन में जब तक एकांत, मौन और ध्यान-ये तीनों साथ नहीं होंगे, तब तक हम पूरी तरह आध्यात्मिक नहीं बन पाएँगे। इसलिए सामायिक को गंभीरता से लें। प्रयास करें, स्वयं को एकांत में लाने का, मौन रखने का और ध्यान में जीने का । साधना के ये ही मूल मंत्र हैं । यहीं से साधना शुरू होती है। जहाँ ये मिल जाएंगे, त्रिवेणी हो जाएगी, तीर्थराज प्रयाग हो जाएगा। 94 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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