Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 101
________________ सांझ को टहलने के लिए बुद्ध जाते थे, वहाँ इस बात का भी ध्यान रखा जाता था कि बगीचे में कोई बूढ़ा वृक्ष न हो अथवा मुरझाया हुआ फूल भी न हो । I एक दिन बुद्ध युवा महोत्सव में जा रहे थे। उन्होंने मार्ग में किसी वृद्ध को देखा। वह झुकी कमर वाला व्यक्ति हाथ में डंडा पकड़े चला जा रहा था। बुद्ध ने किसी वृद्ध को पहली बार देखा था। उन्होंने सारथी से पूछा, 'यह व्यक्ति कौन है ? इसकी कमर झुक क्यों गयी है ? हाथ में डंडा पकड़े क्यों चल रहा है ?' सारथी ने कहा, 'यह वृद्ध है। सीधे चलने की शक्ति अब इसमें नहीं है अतः डंडा पकड़ कर चल रहा है।' बुद्ध ने पूछा, 'क्या हर व्यक्ति के साथ ऐसा होता है ? सारथी ने कहा, 'जी ! हर कोई व्यक्ति इसी तरह वृद्ध होता है।' बुद्ध कुछ न बोले । उन्होंने कुछ सोचा और सारथी से रथ आगे बढ़ाने को कहा। आगे किसी व्यक्ति की अर्थी जा रही थी। सैकड़ों लोग साथ चल रहे थे। बुद्ध समझ न पाये यह सब क्या है ! उन्होंने कुतूहल से सारथी से पूछा, 'ये लोग कौन हैं जो इस व्यक्ति को बांधकर, कंधे पर उठाकर इस तरह ले जा रहे हैं ?' सारथी ने कहा, ‘कुमार ! ये जो व्यक्ति डोरियों से बँधा है, वह मर गया है। इसे जलाने के लिए ये ले जा रहे हैं।' बुद्ध ने विस्मय से पूछा, 'क्या सब मरते हैं ? क्या सबको जलना होता है ?' सारथी ने कहा, 'हाँ, कुमार! सबके साथ ऐसा ही होता है । ' बुद्ध ने फिर पूछा, क्या मैं भी मरूँगा ? क्या मुझे भी जलाया जायेगा ?' सारथी ने कहा, 'कुमार ! भला इस मौत की मार से अब तक कौन बचा है ?' कहते हैं, बुद्ध ने उसी समय सारथी को रथ वापस घुमाने के लिए कहा। और वह दिन बुद्ध के लिए संसार अंतिम दिन हुआ। अगली भोर तो वे समाधि की राह पर थे। मैंने कई लोगों को मरते देखा है। उन्हें मांगलिक पाठ सुनाए हैं। मैंने प्रायः यही पाया कि अंत समय में भी उनका मन मांगलिक पाठ में नहीं लगता और पारिवारिक उपेक्षा के कारण वह तिल-तिल मरता रहता है । फिर भी आसक्ति वैसी की वैसी जीवित रहती है । आचार्य शंकर कहते हैं अंगं गलितं पलितं मुंडम्, दशनविहीनं जातं तुंडम्, वृद्धो याति गृहीत्वा दंडम्, तदपि न मुंचत्याशा पिंडम् ॥ शंकर अपनी कुटिया के बाहर बैठे थे। एक बूढ़ा वहाँ से गुजरा। उसका अंग-अंग गल रहा था, कमर झुक गई थी, मुंह के सारे दाँत गिर चुके थे। उसे आँखों से दिखाई देना बंद हो गया था। उससे चला नहीं जाता था अतः उसने हाथ में डंडा ले रखा था, लेकिन उसकी इच्छाएँ नहीं मरीं । तृष्णा कभी समाप्त नहीं हुआ करती। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, मगर इच्छाएँ - आशाएँ बूढ़ी नहीं होतीं । तुम मर जाओगे, पर यह सोचो कि क्या तुम्हारी इच्छाएँ मरेंगी ? इसलिए सारी उम्र संसार के लिए ही सोचते मत रह जाना । अपने लिए भी कुछ बचाकर रखना । अन्यथा Jain Education International 102 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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