Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 78
________________ तुम्हें पीछे की ओर खींचते रहेंगे।अगर इसी तरह इन सबसे बँधे रहे, तो तुम्हारे जीवन की बहुत सारी संभावनाएँ दबी की दबी रह जायेंगी। संभव हो तो इस भ्रांति का भंजन करो कि संसार मेरा है। 'नहीं', यह तुम्हारा नहीं है, किसी का भी नहीं है । संसार सिर्फ संसार है। शेष जो कुछ हैं, हमारे मिथ्या आरोपण हैं, मिथ्यात्व का प्रभाव है। संसार में समाधि के सूत्र ढूँढ़ लेना, भ्रम से मुक्त हो जाना, जीवन में सम्यक्त्व का द्वारोद्घाटन करना है। तीन स्थितियाँ हैं—बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा।आदमी बहिरात्मा में जीता है। जब वह 'मेरापन' समाप्त कर लेता है तो अंतरात्मा की स्थिति में पहुँच जाता है और जिस दिन उसका 'मैं' मैं और मेरापन छूट जाता है, वह परमात्मा की स्थिति में पहुँच जाता है। दुनिया में दुःख और सुख किसी पर निमित्त से नहीं आते हैं । ये दोनों आदमी की ममत्व-बुद्धि के कारण पैदा होते हैं। आदमी के अपने कृत्य ही उसके लिए सुख और दुःख की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । राग से ही द्वेष पैदा होता है । जहाँ राग ही नहीं होगा, वहाँ द्वेष भी नहीं होगा। यदि संयोग है, तो वियोग भी उसके साथ जुड़ा हुआ है। बिना विवाह किये क्या कभी तलाक होती है ? जैसे-जैसे व्यक्ति का राग-भाव परिपुष्ट होता है, वैसे-वैसे ही विपरीत स्थितियों में उसका द्वेष-भाव भी परिपुष्ट होता है। किसी भी चीज के प्रति आसक्ति और सम्मोहन बढ़ेगा तो अनुकूल संयोगों के बीच प्रतिकूल संयोग आने पर व्यक्ति का द्वेष-भाव भी परिपुष्ट होगा। ___मनुष्य की स्थिति बड़ी दयनीय है। आदमी वृद्ध हो गया है, उसकी कमर झुक गई है, अंग गल रहे हैं, आँखों से कम दिखाई देने लगा है, मगर लालसाएँ कम नहीं हुई हैं। शरीर समाप्त होने जा रहा है, मृत्यु के करीब है, लेकिन तृष्णाएँ शांत नहीं हो रही हैं । उसकी कामनाएँ, लालसाएँ, तृष्णाएँ जीवित हैं । व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा मिथ्यात्व यही है कि वह स्वयं तो चेतन तत्त्व है, लेकिन उसकी सारी आसक्ति अचेतन-जड़ पदार्थों के प्रति ही बनी हुई है। क्या कभी आपने सोचा कि आसक्ति कितनी गहरी है ? आदमी अपने शरीर को, इस माटी की काया को सजाने-सँवारने में पूरी जिंदगी लगा देता है। अरे, यह तो जड़ है। एक दिन माटी की काया, माटी में ही मिल जाएगी। एक दिन तो उसे राख होना ही है। आदमी के रहने के लिए तो दो कमरों का मकान काफी है, लेकिन वह सात-मंजिला मकान बनवाता है। यह सब आसक्ति और तृष्णा के कारण ही होता है। शरीर को ढंकने के लिए दो जोड़ी कपड़े बहुत हैं, मगर आदमी आलमारियाँ भर कर कपड़े रखता है। औरतें साड़ियों की संख्या बढ़ाने में लगी रहती हैं। अपने जीवन को सफल बनाने की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता, क्योंकि उन पर सांसारिकता का ऐसा नशा छाया रहता है कि आत्मा के बारे में सोचने का उन्हें समय ही नहीं मिलता।आदमी जब आकांक्षाओं की पूर्ति में लग जाता है तो उसके लिए मोक्ष के रास्ते बंद हो जाते हैं। सादा कपड़ा पहनने से काम चलता है, मगर वह चमकदार और सजावटी कपड़ा लाने को उत्सुक रहता है। रोटी से पेट भर जाता है, मगर आदमी को बादाम-पिश्ता चाहिये। रहने के लिए झोंपड़ी काफी है, लेकिन मन को सात मंजिला मकान चाहिए। अब तक आदमी आकांक्षाओं की 79 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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