Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 80
________________ की आत्मा को निहार सकोगे, इसलिए बाहर की आँखें बंद करके ही मंदिर में जाना । प्रवचन भी सुन रहे हो और आसक्ति का दायरा भी बढ़ा रहे हो तो ऐसा प्रवचन किस काम का ? सत्य पर प्रवचन सुना, लेकिन दुकान जाकर फिर झूठ बोलने लगे, डंडी मारने लगे। अचौर्य पर प्रवचन सुना, लेकिन फिर चोरी करने निकल पड़े तो फिर प्रवचन सुनने ही मत जाओ। कम से कम जीवन में दोहरापन तो नहीं आएगा। प्रवचन सुनने जाओ तो उस पर अमल भी करो । प्रवचन सुनकर, उस पर चलने का प्रयास करोगे तो प्रवचन करने वाले संत का श्रम भी सार्थक होगा और तुम्हारे जीवन में भी बदलाव आएगा। एक समय में एक ही काम करो और उसी में पूरी तरह डूब जाओ । महाराज जनक के बारे में कहते हैं कि वे प्रतिदिन मिथिला के बाहर स्थित जंगल में ऋषि याज्ञवल्क्य के पास प्रवचन सुनने जाया करते थे । इस प्रवचन - सभा में और भी हजारों लोग आते थे। एक दिन लोगों ने देखा कि प्रवचन का समय हो गया है लेकिन ऋषि ने प्रवचन शुरू नहीं किया है। पता चला कि महाराज जनक अभी तक नहीं आए हैं, इसलिए देरी हो रही है। वहाँ बैठे हुए लोगों में कानाफूसी होने लगी कि इतने बड़े ऋषि भी एक राजा के इंतजार में बैठे हैं। हम इतने लोग यहाँ प्रवचन सुनने को बैठे हैं, मगर ऋषि राजा का इंतजार कर रहे हैं । यह तो उचित नहीं है । कानाफूसी हो ही रही थी कि महाराज जनक वहाँ पहुँच गए। इससे पहले कि याज्ञवल्क्य प्रवचन शुरू करते, कुछ श्रोता खड़े हो गए और पूछने लगे कि 'महाराज हमारी एक शंका का समाधान करें । आपकी नजर में तो राजा और आम आदमी एक समान है, फिर आपने राजा जनक का इंतजार क्यों किया ? आपको तो समय पर प्रवचन शुरू कर देना चाहिए था। आपने ऐसा क्यों किया ?' याज्ञवल्क्य ने उनसे कहा कि प्रवचन के बाद इसका उत्तर दूँगा । इसके साथ ही उन्होंने प्रवचन शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर हुई थी कि मिथिला में आग की लपटें दिखाई देने लगीं। चीख-पुकार मच गई। प्रवचन में बैठे लोग उठकर भागे, उन्हें अपने - अपने सामान की, घर की चिंता थी। कुछ ही देर में प्रवचन -स्थल खाली हो गया। वहाँ केवल जनक और याज्ञवल्क्य रह गए। ऋषि ने पूछा, 'राजन्, क्या आप नहीं जाएंगे? आपकी मिथिला तो जल रही है । ' जनक ने शांत स्वर में कहा— 'महाराज, मेरा तो मेरे पास है। मिथिला भले ही जले पर मेरा क्या जल रहा है ? राजमहल, धन सम्पत्ति मेरी नहीं है, वह तो मुझे ईश्वर ने राज्य चलाने के निमित्त दी है। अब ईश्वर की मर्जी ही ऐसी है कि सब जलकर नष्ट हो जाए तो मैं क्या कर सकता हूँ? आप तो प्रवचन जारी रखें। मुझे इस ज्ञानगंगा से वंचित न रखें ।' 4 याज्ञवल्क्य ने प्रवचन जारी रखा। थोड़ी ही देर बाद श्रोता एक-एक कर लौटने लगे। जब प्रवचन- स्थल पूरा भर गया तो याज्ञवल्क्य ने पूछा कि आप लोग आग बुझाकर इतनी जल्दी कैसे आ गए ?' लोगों ने कहा कि वहाँ कोई आग ही नहीं लगी थी। इस पर याज्ञवल्क्य ने उन्हें उनका प्रश्न याद दिलाते हुए कहा—' आपने आज पूछा कि मैंने प्रवचन शुरू करने से पहले महाराज का इंतजार क्यों किया ? इसका जवाब अब देता हूँ। दरअसल, यहाँ राजा जनक ही वास्तव में प्रवचन सुनने आता है । वह सब चीजों से नि:स्पृह होकर आता है इसलिए मैं Jain Education International 81 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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