Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 75
________________ मालिक ! मेरेपन की तादात्म्य वृत्ति हमारे अपने द्वारा ही पैदा की जाती है। किसी भी पदार्थ से हमारी ममत्व बुद्धि तभी जुड़ती है या जुड़नी प्रारंभ होती है, जब उस पर 'मेरेपन' का भाप आरोपित किया जाता है। मकान कल तक भी था जब तक तुमने उसे खरीदा नहीं था। लेकिन आज तुम उसे 'मेरा' कह रहे हो। कल तक न कहा था और अगर कल वापस उसे बेच दिया, भले ही उसमें पचास साल तक रहे. पर यह न कहोगे कि यह मकान मेरा है। जिस मकान में पचास साल तक जीये, अगर तब तक उस मकान में दरार भी पड़ जाती थी, तो तुम आकुल-व्याकुल हो जाते थे पर बिक जाने के बाद अगर वह पूरा ही गिर जाता है, तो तुम्हारे मन में किंचित्मात्र भी व्याकुलता पैदा न होगी। इसका अर्थ यह है कि व्याकुलता का संबंध, सुखदुःख का संबंध तुम्हारी ममत्व बुद्धि' से है, मकान से नहीं है। ___मैंने एक घटना सुनी है। किसी मकान में आग लग गई। मकान-मालिक छाती पीट-पीटकर रोने लगा, आग बुझाने के लिए चीखने-चिल्लाने लगा, लेकिन तभी पड़ौसी ने आकर बताया, 'क्यों बेकार में रो रहे हो? तुम्हारा बेटा कल ही इसका बीमा करा चुका है। कल ही मैंने उसे बीमा विभाग में देखा था जब वह मकान का बीमा करवा रहा था। तुम नाहक ही परेशान हो रहे हो। मकान तो तीन लाख का जलेगा किन्तु तुम्हें चार लाख मिल जाएँगे।' ___मकान-मालिक ने कहा, 'क्या सचमुच मकान का बीमा हो चुका है ? तो कोई चिंता की बात नहीं है । वैसे भी यह मकान पुराना हो चुका था।' देखते-देखते उसके आँसू न जाने कहाँ गायब हो गये? मकान तो अब भी जल रहा था. लेकिन बीमा हो चका था. इसलिए व्यक्ति की आसक्ति मकान से हटकर बीमा पर चली गई. यह सोचकर कि बीमा से जो पैसा मिलेगा. वह तो मेरा ही है। चलो. इससे नया मकान बन जायेगा।' लेकिन तभी उसका बेटा भागा हुआ आया और बोला- 'पिताजी आप यह क्या कर रहे हैं? घर में आग लगी है और आप बाहर खड़े बातें कर रहे हैं।' ___उस मकान मालिक ने कहा, 'अरे बेटा, जब तुमने बीमा ही करवा लिया है तो चिन्ता किस बात की?' बेटे ने अपना हाथ सिर पर मारा और कहा, 'पिताजी मैं गया जरूर था, बीमा करवाने लेकिन बीमा हो नहीं पाया।' उसका इतना कहना था कि मकान मालिक के फिर आँसू बहने लगे। वह फिर छाती पीट-पीटकर रोने लगा। 'मर गये, लुट गये' कहने लगा। मकान वही का वही, आग वही की वही, पर बीच में क्या हो गया? पहले तो मेरापन' मकान से अलग हो गया, आँसू सूख गये, किन्तु फिर 'मेरापन' मकान से जुड़ गया और वापस आंसू बहने शुरू हुए। 'मेरापन' का भाव ही हमारे सुख व दुःख का कारण है । अगर 'मेरापन' का भाव हट जाये, ममत्व-बुद्धि छूट जाये, तो कर्मों की हर प्रक्रिया का प्रभाव भी शरीर तक आकर सीमित रह जायेगा। वह चेतना का स्पर्श नहीं कर पायेगा। मेरा भाव रखना ही समस्त प्रक्रियाओं को अपना साथ देना है। जिस दिन यह बोध हो जाए कि जहाँ मैं जी रहा हूँ, वह मेरा नहीं है; जिनके बीच जी रहा हूँ, वे मेरे नहीं है, तो फिर व्यक्ति महावीर और बुद्ध की तरह जीवन को एक क्षण में सन्मार्ग पर ले आएगा। 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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