Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 63
________________ आत्म-बोध के अभाव में हमारी पूरी जिंदगी एक भ्रमजाल में फंसी रह जाती है। धर्म के नाम पर सब कुछ हो जायेगा, पर 'बिन श्रद्धा भव भटके' वाली बात लागू रहेगी। दुनिया भर के तीर्थ कर आओगे। मक्का-मदीना, ब्रदीनाथ-केदारनाथ, पालीताना-सम्मेत शिखर, सब जगह जाकर भी वहाँ वास्तविक उपलब्धि शायद नहीं कर पाओगे। हम सोये-सोये जाएँगे और वापस वैसे ही लौट आएंगे। ऐसा लगता है मानो तीर्थ-यात्रा के नाम पर हम मात्र पर्यटन-घूमने-फिरने के लिए ही निकले हों। परमात्म-दर्शन, तीर्थ-यात्रा वास्तव में आत्म-दर्शन/आत्मप्रतीति के लिए है ताकि तीर्थों के पवित्र वातावरण में जाकर हम अपने-आपको अन्तर्मुखी बना सकें। अन्यथा मक्का किया, हज किया, बनके आया काजी। आजमगढ़ में जब से लौटा, फिर पाजी का पाजी। लोग बातें करते हैं कि मैंने सपने में पालीताना तीर्थ के दर्शन किए। कोई कहता है कि मुझे सम्मेत शिखर नजर आया। ये सभी स्वप्न आँख खुलते ही आदमी को ज़मीन पर ले आते हैं। असल में तो परमात्मा की आभा तुम्हारे अपने भीतर है, आप खुद एक आत्मा हैं। जिस परमात्मा की आभा आप स्वयं में छिपाये हुए हैं, उसे बाहर की बजाय भीतर ढूंढा जाना चाहिये। यदि सिक्का कमरे में गिरा है और आप उसे कमरे के बाहर जाकर ढूँढ़ते हैं, तो आपसे बड़ा अज्ञानी और कोई न होगा। सबसे चिंताजनक बात यह हो रही है कि हमारा अतीत जो आत्म-चेतना व आत्म-जाग्रति का संदेश देता था, उसे हमने बिसरा दिया। हमारे साथ धर्म और अध्यात्म के नाम पर मात्र बाहरी क्रियाकलाप, बाहरी आचरण जुड़ता जा रहा है। हमारा मूल अस्तित्व, मूल चेतना हमसे दूर होती जा रही है। आज उस साधक की शायद ही कोई महत्ता होगी, जो आत्म-चेतना की उपलब्धि के लिए गुफा में जाकर बैठा हुआ है। समाज में तो उनकी ही पूजा हो रही है जो व्यावहारिक रूप से सफल हैं। निश्चित तौर पर धर्म-जगत् के लिए आज दुर्भाग्य की घड़ी है कि यहाँ वेश के साधु चाहे जितने मिल जायेंगे, पर जीवन के साधु विरल हैं ! आत्म-वासी मुनि खोजने से न मिलेंगे। समाज को तो मात्र व्यावहारिकता से मतलब है, अगर उसमें निपुण हो तो धड़ल्ले से चलोगे। भले ही सिक्के खोटे हों पर अगर उनमें चमक है तो वे चलेंगे। जिस धर्म की नींच आत्म-दर्शन, आत्म-ज्ञान थी, आज वहाँ मात्र शासन-प्रभावना के नाम पर वह सब कुछ हो रहा है जो शायद किसी से छिपा नहीं है। माना कि तुम जीवन में कई प्रतिष्ठा-महोत्सव करा चुके हो, लाखों-लाख रुपये रंगीन पत्रिकाओं पर खर्च करा चके हो, पर क्या स्वयं को स्वयं में प्रतिष्ठित कर पाये? प्रतिष्ठा-महोत्सव को मात्र प्रतिष्ठा बटोरने का साधन नहीं बनाना चाहिये, अपितु वीतराग प्रभु की वीतरागता को जीवन में प्रतिष्ठित करना चाहिये। ____ व्यावहारिकता को निभाने के नाम पर बाहर-भीतर के जीवन में फर्क रखना अपने आपको धोखा देना है। क्या एक मुनि का कर्तव्य मात्र लोकैषणा की पूर्ति ही है ? क्या एक मुनि का कर्त्तव्य मात्र प्रतिष्ठाएँ, उपधान या संघ-यात्राओं का आयोजन करना भर है ? अगर इन सबके चलते कुछ वक्त भी आत्म-साधना के लिए नहीं निकाल पाते हो तो ये सब कुछ आखिर है किसलिए? क्या कहीं कोई खबर है कि आखिर यह एषणा कहाँ ले Jain Education International ha For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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