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संसार के आर-पार
एक सम्राट् एक फ़कीर को प्रतिदिन अपने महल में आकर भोजन करने के लिए आमंत्रित किया करता था। फ़कीर था कि 'हाँ' ही न करता था। सम्राट ने भी हार नहीं मानी और रोजाना उसके पास जाकर आग्रह करने का अपना क्रमभंग नहीं किया। आखिरकार, एक दिन फ़कीर का दिल पसीजा और वह महल में भोजन करने के लिए आने को तैयार हो गया।
राजा के हर्ष का पारावार न रहा। उसने फ़कीर के स्वागत में राजपथ की सजावट करवाई और महल को भी सजाया गया। महारानी ने स्वयं फकीर की अगवानी की। फ़कीर ने शांत-चित्त से भोजन किया। भोजन के बाद करीब एक घंटे महल में विश्राम कर फ़कीर अपनी झोंपड़ी की तरफ रवाना हो गया।
सम्राट ने सोचा कि कुछ दूर तक फक़ीर को छोड़ आना चाहिए। वह फक़ीर के साथ-साथ चलने लगा। सम्राट ने चलते समय फक़ीर से पूछा 'फक़ीर साहब! मेरी एक शंका का समाधान करें। मैं सम्राट् हूँ, महल में रहता हूँ। सोने के थाल में भोजन करता हूँ। आज आप भी महल में रहे, आपने सोने के थाल में भोजन किया, फिर आप में और मुझ में अंतर ही क्या हुआ?' ___फ़कीर मंद-मंद मुस्कुराया, मगर बोला कुछ नहीं, चलता रहा। उसकी झोंपड़ी महल से करीब दस किलोमीटर दूर जंगल में थी। दोनों चलते रहे । करीब दो किलामीटर चलने के बाद सम्राट को बेचैनी होने लगी। उसका ख़याल था कि फक़ीर उसे लौट जाने को कहेगा, मगर फ़कीर अपनी धुन में चला जा रहा था। बिना उसके कहे सम्राट अगर लौट आए तो अच्छा नहीं लगता। जब वे पाँच-छ: किलोमीटर दूर आ गए तो सम्राट ने
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