Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 67
________________ व्यक्ति की शरीर के प्रति राग और आसक्ति इतनी गहन है कि उसे शरीर-तत्त्व में ही आत्म-तत्त्व दिखाई देता है। आदमी को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि मेरी जिन्दगी में चारों ओर कितनी कलुषताएँ छायी हुई हैं ? उसकी आत्मा के चारों ओर कितना अंधेरा छा रहा है ? उसे तो इस बात की चिंता है कि मेरे शरीर पर कोई दाग तो नहीं लग रहा है। उसे तो केवल उस दाग की ही चिंता है। उसे मिटाने का ही वह प्रयास करता है, मगर भीतर की कलुषता की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। ___व्यक्ति का अपनी देह से रिश्ता ही ऐसा जुड़ गया है कि उसे केवल बाहरी दाग दिखाई देते हैं। कई लोगों को सफेद दाग की बीमारी हो जाती है तो उसे ठीक कराने के लिए वे पूरी दुनिया में घूम आते हैं, मगर आत्मा के दागों पर उनकी नजर नहीं पड़ती। वे तो केवल अपने शरीर को ही बेदाग रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। वस्तुतः सच्चा साधक तो वही है, जो जड़ और चेतन के अंतर को पहचान कर, चेतन के प्रति अपनी लौ लगा ले। आनंदघन ने यही किया इसीलिए तो उनका श्रमण वही है जिसे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हो जाए या फिर वह जो इसकी प्राप्ति के प्रयासों में लग जाए।होता यह है कि नब्बे प्रतिशत लोग जड़ को ही सर्वस्व मानकर चल रहे हैं। उनकी दुनिया तेरा', 'मेरा' के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। तभी तो ऊपरी शरीर में तो उसे पचास कमियाँ भी नजर आ जाती हैं. मगर भीतर एक कमी भी वह नहीं देख पाता। उसे दर करने की बात तो अलग है। आदमी परा जीवन शरीर के कालेपन को साफ करने में परा कर देता है। आत्मा की चनरी पर लगे दाग उसे कहाँ नजर आते हैं? वह ध्यान दे तो शायद नजर भी आएँ पर ऐसा करना उसे नहीं सहाता। देह पर छोटी सी खरोंच आ जाए तो व्यक्ति बेचैन हो उठता है, मगर आत्मा पर तो न जाने कितनी चोटें लग रही हैं. आत्मा लहलहान हो रही है, मगर आदमी का इस ओर ध्यान नहीं जाता। आखिर व्यक्ति है कौन? वह कहाँ से आया है, इन प्रश्नों पर वह विचार ही नहीं कर पाता। उसे इसका समय ही कहाँ मिलता है? वह अपने को मोहनलाल, रामलाल कहता है किन्तु वह यह नहीं जानता कि ये सब तो शरीर के आरोपित नाम हैं जिनका उसकी आत्मा से कहीं कोई सरोकार ही नहीं है। आदमी एक लाख का दान देकर प्रफुल्लित होता है। वह खुश होता है कि उसका 'नाम' हो गया। उसका नाम कहीं शिलापट्ट पर अंकित हो गया। वह नहीं जानता कि जिस नाम को चमकाने में वह लगा है, वह चेतना का नाम नहीं है अपितु जड़ का नाम है । और भला आरोपित नाम की उम्र का क्या ठिकाना? जब तक आदमी शरीर के साथ ममत्व बद्धि रखेगा. तब तक वह आत्म-चेतना को नहीं पहचान पाएगा। वह यह नहीं सोचता कि परी जिन्दगी भर जिस देह की वह सार-संभाल कर रहा है. वह अंतिम समय में यहीं रह जाने वाली है। परी जिंदगी साबन से धोने के बाद भी यह काया तो राख होनी है। आदमी की काया गोरी हो या काली, आखिर तो वह राख होकर काली ही होती है। देह के प्रति जो मूर्छा और आसक्ति है, वह जल्दी समाप्त नहीं होती, इसलिए मनुष्य भटकता रहता है। राग और मोह के चक्रव्यूह में वह ऐसा उलझ जाता है कि उससे बाहर का तो हमें कुछ नजर ही नहीं आता। हम अपनी चेतना को जागृत करें। अपने अस्तित्व की तलाश स्वयं करें क्योंकि वह परमात्म-तत्त्व हमारे भीतर ही तो 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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