Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 41
________________ वासना की ग्रन्थि ने सिर उठाया, हमने उसे दबा दिया। हर चीज को दबाना हमारी प्रवृत्ति बन गई है। इस प्रवृत्ति ने हमारा भला नहीं, बुरा ही किया है। आपने लोहे की स्प्रिंग को देखा होगा। उसे जितना दबाते जाओगे, वह उतनी ही अधिक शक्तिशाली होती जाएगी। एक सीमा ऐसी आएगी कि वह आपका दबाव सहन नहीं कर, जोर से उछलेगी। __ हम मन को दबाने की नहीं अपितु समझने-समझाने की कोशिश करें। हम जरा निरीक्षण करें कि ऐसी कौन-सी स्था यी प्रवृतियाँ हैं, जो हमें शुभ कार्यों की ओर नहीं चलने देतीं। मन हमेशा चुनाव करता है। वह फूल र कांटे में से हमेशा फूल चाहता है। उसका राग, उसकी आसक्ति फूल के प्रति होती है। मन हमेशा अच्छी चीज चाहता है। यह अलग बात है कि कई बार उसे बुरी चीज मिल जाती है। मनुष्य इस चुनाव की प्रवृत्ति में ही चोट खा जाता है। चुनाव तभी संभव है, जब एक के प्रति राग हो और दसरे के प्रति द्वेष। अगर ऐसा नहीं है तो दोनों चीजें अच्छी हैं फिर राग-द्वेष कहाँ हआ मनष्य अच्छ स्वीकारता है और बुरी वस्तु को नकारता है । जब ऐसा होगा तो चुनाव की स्थिति रहेगी और आदमी साक्षी भाव में नहीं जी सकेगा। प्रारंभ में कही गई घटना की याद दिलाता हूँ। छोड़ने को कहा तो भी लगाव और न छोड़ने को कहा तो भी हाँ इनसे ऊपर उठ गए. वहीं व्यक्ति साधना के मार्ग पर प्रवेश कर पाएगा। राग-द्वेष जैसे-जैसे हल्के होते जाएँगे, वैसे वैसे भीतर सजगता आती जाएगी। सजगता से मन मुक्त होता चला जाएगा। जरूरत भीतर सजगता लाने की है। साक्षी-भाव पैदा करने की है। ___हम अपने चित्त की गतिविधियों का मात्र निरीक्षण करें। अगर हमारे भीतर उन गतिविधियों के प्रति तटस्थता उपलब्ध हो जाये, तो चित्त की चंचलता स्वतः शान्त हो जायेगी। चित्त कभी रुलाता नहीं है। हाँ, उससे संयुक्त होने का जो तादात्म्य होता है, वह अवश्य रुलाता है। अगर हम कर्ता-भोक्ता दोनों से उपरत होकर मात्र साक्षीभाव में आ जाते हैं, तो आपको देखकर आश्चर्य होगा कि चित्र आये और चले गये, पर राग-द्वेष का उदय न हुआ। बाहर तरंगें उठने की सम्भावनाएँ भी पैदा हुईं, पर साक्षीत्व ने चेतना को निष्तरंग ही रखा। चेतन का साक्षीत्व में लौट आना जीवन में असीम आनन्द का सूर्योदय है। सुख-दुःख दोनों बाहर के निमित्त से प्रकट होते हैं और आनन्द निमित्त की समाप्ति पर । बहिर्मुखी व्यक्तित्व सुख-दुःख में जीता है और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व आनन्द में जीता है। जो मन में, विचारों में, देह में जीते हैं, सुख-दुःख उनके पिछलग्गू बने रहते हैं, लेकिन जो इनसे उपरत होकर अन्तर्चेतना में लौट आया है, आनन्द उसका स्वभाव बन जाता है। बहिर्मुखी अवस्था हमारी विभाव-दशा है और अन्तर्मुखी दशा हमारी स्वभाव-दशा है। इस दुनिया में जितने भी संबुद्ध लोग हुए हैं उन सबकी एक ही सिखावन रही है कि आनन्द तुम्हारे भीतर है। भीतर लौटने का उपाय है चित्त का विसर्जन, विचारों का विसर्जन । चित्रों के प्रति द्रष्टा बनें । चित्त के विलीन हो जाने के बाद, विचारों के खो जाने के बाद जो अद्भुत आनन्द तुममें उतरेगा उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना शक्य नहीं है। गूंगा भला गुड़ के स्वाद को शब्दों में कैसे बाँध पायेगा? शब्द इस अद्भुत आनन्द की अभिव्यक्ति में चूक जाएँगे। 42 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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