Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 40
________________ दस्तक दे देता है। उस दशा का नाम ही मोक्ष की दशा है। इसलिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि व्यक्ति अपने मनोमालिन्य और मन की भावनाओं को समझे। लोग कहते हैं, 'प्रभु, क्या करें? कई साल हो गए। मंदिर जाते हैं, मगर मन नहीं टिकता। सामायिक करते हैं, मगर मन नहीं टिकता। माला फेरते वक्त भी मन स्थिर नहीं रहता। आखिर यह मन है क्या बला?' मन शुभ गति की ओर चलना चाहता है लेकिन चल नहीं पाता। यानी मन मनुष्य के लिए समस्या बन गया है। हकीकत भी यही है। मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या मस्तिष्क ही है। और मज़े की बात तो यह है कि यही मस्तिष्क आदमी की समस्याओं का समाधान है। इसलिए मन अगर जीवन की समस्या है, तो उसका समाधान भी आखिर वही है। आदमी की बाहर की समस्याएँ तो निपट भी जाती हैं, मगर भीतर की समस्याएँ ज्यादा पीड़ा देती हैं। प्राय: भीतर की समस्याओं को मन ही पैदा करता है और मन ही उनका समाधान करता है। इसलिए जो मन में जीवन्त है, वे अन्तर्-द्वन्द्व में जी रहे हैं। मन ही मनुष्य के बंधन का कारण बनता है और मन ही मोक्ष के दीप जलाता है। जिसका मन सध गया, उसका मन मोक्ष का कारण बनेगा और जिसका मन बँध गया. वह नरक का कारण बनेगा। मन की गति सधर गई तो 'स्वर्ग' और बिगड़ गई तो नरक बन गया ।मन का स्वभाव ही ऐसा है । वह चंचल है। और जब मनुष्य मन के स्वभाव के विपरीत जाने लगता है तो समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। एक बात और ध्यान देने जैसी है कि मनुष्य का चित्त एक चित्रकार है। वह जितने जीवन्त चित्र बनाता है उससे ज्यादा सपनों के चित्र बनाता है। जो संसार बन्धन का कारण है, उसका निर्माण कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं करती अपितु हमारा अपना चित्त ही करता है। जब तक चित्त सक्रिय है तब तक संसार है। चित्त की निष्क्रियता ही मुक्ति है। चित्त की सक्रियता संसार है, चित्त की शिथिलता साधना है और चित्त का शून्यत्व समाधि है। संसार का अस्तित्व ही चित्त की सक्रियता से निर्मित होता है। हम भूल जाते हैं चित्त की सक्रियता में अपने अस्तित्व को, चेतना को । हम फिल्म देखते-देखते रोते हैं, हँसते हैं, आकुल-व्याकुल होते हैं । हम भूल जाते हैं कि हम सिर्फ दर्शक हैं, सिर्फ दृष्टा । चित्त का प्रभाव ही अज्ञान है, उसके प्रभाव से मुक्त हो जाना ही ज्ञान है। मन के पर्दे पर फिल्म चल रही है चौबीसों घंटे। प्रॉजेक्टर भी आप हैं और पर्दा भी आप ही हैं। पर्दे का चित्र-मुक्त, श्वेत बने रहना यही चैतन्य-मुक्ति है। अगर वृत्तियों के चित्रों की रील न हो तो पर्दा स्वतः साफसुथरा ही रहेगा। हमारी साधना चित्त को शून्य करने की होनी चाहिये, चित्रों से मुक्त होने की होनी चाहिये, चैतन्य जागरण की होनी चाहिये। जो चित्रों का सृजन कर रहा है, वह चैतन्य से वंचित रह जाता है। चैतन्य को तो वही व्यक्ति उपलब्ध हो पाता है, जिसने चित्त के चित्र विसर्जित कर दिये हैं। ऐसा व्यक्ति ही चेतना के अंतिम स्तर का स्पर्श कर पाता है और वही सम्बोधि की सुवास को उपलब्ध कर सकता है। ___ हमें यह विवेक भी हो कि साधना-मार्ग में मन को दबाना नहीं है प्रत्युत उसे समझना और समझाना है। मन का जितना अधिक दमन होगा, वह और भी शक्तिशाली होकर उभरेगा। अब तक हमें यही पढ़ाया गया है कि 'मन का कहा न करो। यह तो दबाने के लायक है।' मन में लोभ की प्रवृत्ति पैदा हुई, हमने दबा दी। मन में Jain Education International For Perso:41 Private Use Only www.jainelibrary.org

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