Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 52
________________ ने ही की है। उस 'कुशास्त्र' के भी लाखों पाठक हैं और वे तुम्हारे शास्त्र को 'कुशास्त्र' कह रहे हैं। गुलाब को प्रेम करने वाले लोग इस धरती पर हैं और चम्पे से प्रेम करने वाले भी। दोनों की अपनी-अपनी सुगंध है । हाँ, अगर तुम्हारे भीतर हीनग्रन्थियाँ हैं तो भले ही तुलना कर तुम एक को हीन घोषित कर दो। लेकिन इससे उनके महत्व में कोई फर्क नहीं पड़ेगा । महावीर और बुद्ध समकालीन थे। लेकिन परस्पर कभी नहीं लड़े। लेकिन उन्हीं के अनुयायी उनके नाम पर परस्पर लड़-झगड़ रहे हैं। सम्मेत शिखर, अंतरिक्षजी और मक्षीजी को लेकर जो विवाद छिड़ रहा है, वहाँ आज लड़ाई हो रही है। इसमें इन तीर्थों या दिगम्बर - श्वेताम्बर की कोई लड़ाई नहीं है, लड़ाई सिर्फ तुम्हारे अहंकार की है। और मेरे देखे तो धर्म-सम्प्रदाय, मत-मजहब की जो भी लड़ाइयाँ लड़ी गयी हैं, उनमें सिर्फ हमारा अहंकार टकराया है और चिंगारियां पैदा हुई हैं। ये सब हमारी हीन मानसिकता नहीं तो और क्या है जो हम अपनी अहं-तुष्टि के लिए औरों को निकृष्ट घोषित कर रहे हैं । परमात्मा, धर्म और शास्त्र आदि तो सबके हैं और एक जैसे ही हैं। न किसी का परमात्मा श्रेष्ठ है और न ही । फिर क्यों हम बेकार का अहंकार पालें ? इन पर किसी की बपौती नहीं है, ये सबके हैं, सारे जहाँ के हैं । अपनी दृष्टि को परिमल बनाने का प्रयास करो। अगर यही काट-छाँट, तेरा मेरा, छोटा-बड़ा की दृष्टि हमारी रही तो सब कुछ करके भी हम स्वयं को मंजिल तक नहीं पहुँचा पाएँगे। साधना का पहला और अन्तिम सोपान है सम्यग्दृष्टि ही तो है । महावीर से पहले बहुत से लोग हुए, जिन्होंने अलग-अलग ढंग से तप किए। बुद्ध ने भी शरीर को तपा कर देख लिया कि शरीर सुखाना ही तप नहीं है । इसलिए उन्होंने विशेष रूप से दर्शन की विशुद्धि पर जोर दिया। व्यक्ति का बाहर से सब कुछ बदल गया है, लेकिन वह भीतर से नहीं बदले तो केवल बाहर का परिवर्तन तो उसका कल्याण नहीं कर पाएगा। व्यक्ति बाहर से तो बहुत सीधा, शरीफ और सच्चा दिखाई देता है, मगर भीतर से वह उससे ज्यादा धुँधला व्यक्तित्व लिये हुए है। बाहर से तो प्रकाश दिखाई देगा, मगर भीतर सिवाय अंधकार के और कुछ नहीं होगा । कई लोगों को आपने देखा होगा कि वे किसी के सामने तो उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते, मगर जैसे ही वह व्यक्ति आंखों से ओझल हुआ नहीं कि उसकी बुराइयाँ शुरू कर देते हैं । 'मुँह पर राम, बगल में छुरी। मुँह पर फूल, भीतर काँटे।' ऊपर से तो आदमी मीठी बातें करेगा किन्तु पीठ पीछे छुरी चलाने से बाज नहीं आएगा। भीतर तो कषाय-ही-कषाय भरे हैं। हम बाहर से तो परिवर्तन करते जाएँगे, मगर भीतर से बदलाव नहीं लाएँगे । आदमी ने मासक्षमण किया, लेकिन जरा उससे पूछो कि भाई मास-क्षमण से पहले और बाद में आपकी चित्त की दशा में क्या परिवर्तन हुआ, तो वह जवाब नहीं दे पाएगा, क्योंकि वह जानता है कि भीतर तो वे ही पहले जैसे हाल हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं है। हम स्वप्न तो देखते हैं बुद्ध और क्राइस्ट के, लेकिन हमारे कृत्य कितने निकृष्ट हैं! जब तक चित्त में हिंसा है, दमन के भाव हैं, कषाय की वृत्तियाँ हैं, तब तक अहिंसा और तपस्या का मात्र अभिनय ही हो सकता है। क्योंकि धर्म-अध्यात्म का सम्बन्ध देह से कम किन्तु देहातीत तत्त्वों Jain Education International 53 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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