Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 35
________________ दुःख मिलता है। कभी महफिल जमती है, कभी अश्रुधारा बहती है। उसमें कभी सम्पन्नता है तो कभी विपन्नता मनुष्य बहुचित्तवान है। एक मन कुछ करता है, दूसरा कुछ करता है, तीसरा कुछ करता है। आप स्वप्न देखते हैं कि राष्ट्रपति भवन में भोजन आयोजित किया गया है और भोजन की सगन्ध का अहसास भी कर रहे हैं. देख भी रहे हैं. भोजन कर भी रहे हैं. तारीफ भी कर रहे हैं स्वादिष्ट भोजन की. पर आखिर यह सब कछ असीम इच्छाओं को मात्र सान्त्वना देना है। इससे बढ़कर कुछ नहीं। जैसे छोटे बच्चे को माँ दूध नहीं पिलाना चाह रही हो तो उसको रोते हुए चुप करने के लिए रबर की बीटली/नीपल मुंह में पकड़ा देती है। बच्चा उसी को माँ का स्तन मान लेता है और चूसनी चूसते-चूसते ही बच्चे को नींद आ जाती है। सपना रबर की चूसनी है, सान्त्वना है। और अगर इसी चूसनी को वास्तविक मान लिया तो डूब गये समझो। मेरी नजर में जिस व्यक्ति में जितनी ज्यादा इच्छाएँ पलती हैं, वह उतने ही अधिक स्वप्न देखता है। भला ये कितनी सार्थक होंगी सांत्वनाएं ! यह तो ठीक वैसे ही हैं, जैसे एक बूढ़ा सड़क पार करते हुए गिर गया। एक व्यक्ति ने सहानुभूति से उसे जल्दी से उठा दिया। बूढ़ा उसके प्रति आभार-ज्ञापन करते हुए कहने लगा, 'धन्यवाद भैया जैसे तूने मुझे उठाया है ! वैसे ही भगवान तुझे उठाए।' स्वयं को स्वप्न-मुक्त करो। यह संसार भी एक सपना ही है। जन्म-मृत्यु, खान-पान, लाभ-हानि, संयोगवियोग सब कुछ स्वप्न हैं। और यह स्वप्न ही व्यक्ति को स्वयं से दूर कर रहा है। व्यक्ति अशांत है तो इसका कारण यह नहीं है कि वह शरीर से अस्वस्थ है या अनकल परिवार नहीं है या आजीविका का सही साधन नहीं है। यदि ऐसा होता तो दुनिया में आधे लोग ऐसे हैं जिनके पास सारी सुविधाएँ हैं, पर वे शांत नहीं हैं। व्यक्ति की अशांति का मूल कारण उसकी अनगिनत इच्छाएं, लालसाएँ, वासनाएँ हैं। और तो और, वह व्यक्ति भी भीतर से अशांत है जिसके पास फ्रीज, टी.वी., दुकान, मकान, पत्नी-परिवार सब कुछ हैं, फिर भी अशांत है। कारण? कारण एक मात्र यही है- कुछ और पाने की लालसा। ____ हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रायः प्रकृति के द्वारा स्वतः ही कर दी जाती हैं। अगर शिशु इस धरती माँ की गोद में आ रहा है तो उसके आहार-दूध की व्यवस्था प्रकृति के द्वारा पूर्व में ही कर दी जाती है। आवश्यकताओं की पूर्ति तो आराम से सम्भावित है। जरूरतों की पूर्ति में तो कोई झंझट है ही नहीं। हाँ, जहाँ पर आवश्यकता आकांक्षा का बाना पहन लेती है, वहाँ झंझटें खड़ी हो जाती हैं। परिणामस्वरूप 'यह चाहिये - वह हिये की प्रवत्ति शरू हो जाती है। दो-पाँच-दस मिनट के लिए अगर मंदिर भी चले गये तो वहाँ प्रार्थना में भी वही 'चाहिये' वाली कैसेट भीतर में चलनी शुरू हो जाती है। मेरी नजर में तो परमात्मा के द्वार पर भी अगर संसार की आकांक्षा की जाती है, तो उस पवित्र स्थान में जाने का तुक क्या है ? हमारी यात्रा हो आकांक्षा से निष्कांक्षा की ओर। सम्पन्न व्यक्ति वह है जिसे चाह नहीं है। 'चाहिये' वाली प्रवृत्ति तो जीवन का भिखारीपन है। जिसे कुछ नहीं चाहिये, उसी के पास सब कुछ आता है। त्यागे उसके आगे, भोगे उससे भागे'। वह भला कैसा मालिक, 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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