Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 33
________________ शायद वह जीते जी न बुझा पाये। ___ अपनी जरूरत से अधिक की चाह करना ही तो लोभ है । बीस साड़ी है, मगर सौ साड़ियाँ और चाहिये। एक मकान है, मगर और चाहिए। आदमी दुःखी क्यों होता है ? तीन मंजिला मकान करवा लिया, मगर चैन नहीं पड़ रही है क्योंकि मकान की खिड़की से बाहर नजर डालते ही पड़ौसी का पांच मंजिला मकान दिखाई देता है और कलेजे में जैसे छुरी चल जाती है। तीन मंजिला मकान वाला भी सुखी हो सकता है किन्तु शर्त यह है कि वह झोंपड़ी वाले की तरफ देखे और प्रभु को धन्यवाद दे कि उसने मुझे इतना बड़ा मकान दे दिया, जबकि उसका पड़ौसी तो झोंपड़ी में ही दिन बिता रहा है। अपने से कम सुविधा प्राप्त लोगों की तरफ देखने की प्रवृत्ति जाग जाए, तो दुनिया में कोई दुःखी नहीं रहे। आपको स्कूटर मिल गया तो इससे संतोष करो और विचारो कि संसार में ऐसे हजारों लोग हैं, जिनके पास साइकिल तक नहीं है। मेरे प्रभु! जितना धन एकत्र करते जाओगे, इच्छाएँ भी सिर उठाती जाएँगी । इच्छाओं के सामने तो सिकन्दर भी भिखारी बन जाता है। आखिर तृष्णा कब समाप्त होगी? अस्सी वर्ष का वृद्ध भी दुकान के चक्कर काट रहा है। अभी कुछ दिन पहले की घटना है। एक अस्सी वर्ष का वृद्ध बीमार पड़ गया। अस्पताल में रहा बीस दिन, लेकिन पता है जैसे ही अस्पताल से घर पहुँचा, वह सीधा दुकान गया, सम्हालने कि कहीं बेटों ने कुछ गड़बड़ तो नहीं कर दी है। मंदिर, उपाश्रय उसे याद भी न आये। मैं सोच रहा हूँ, आखिर अपने जीवन के लिए हम कब काम करेंगे? आखिर लोभ के इस दलदल में ही फंसे रहेंगे या उससे कुछ उपरत भी हो पायेंगे। क्या हम लोभ-वृत्ति का शमन भी कर पाएँगे? किसी राज-दरबार में एक दिन चर्चा चल रही थी कि पाप का बाप कौन ? सबने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिये। वहीं एक वेश्या भी मौजूद थी। उसने कहा कि पाप का बाप लोभ है। कोई मानने को तैयार नहआ। राज-पंडित ने उसका सबसे ज्यादा विरोध किया। दरबार बर्खास्त हआ। सभी अपने घर चले गए। बात आई-गई हो गई। एक दिन राज-पंडित कहीं जा रहे थे। चलते-चलते वे थक गए तो एक मकान की चौकी पर बैठ कर सुस्ताने लगे। वह घर उसी वेश्या का था। वेश्या ने खिड़की से झाँका तो देखा, राज-पंडित बैठे हैं। उसने अपनी दासी से कहा कि पंडित को भीतर बुला लो। पंडित ने अंदर जाने से पहले दासी से पूछा कि यह मकान किसका है ? दासी ने बताया कि यह वेश्या का मकान है । पंडित बड़े नाराज हुए। 'नहीं-नहीं मैं, वेश्या के यहाँ नहीं जा सकता।' दासी ने उन्हें बताया कि मेरी मालकिन आपकी ग्यारह सोनैयों से पूजा करना चाहती है । ग्यारह सौनेयों का नाम सुनकर पंडित का ब्राह्मणत्व कुछ दबा और पंचम ऊर्जा काम करने लगी। पंडित ने विचार किया कि भीतर जाने में क्या होता है ? पाप थोड़े ही लगता है। इस तरह अपने मन को समझाकर वे वेश्या के घर के भीतर चले गए। वेश्या ने ग्यारह सौनयों से उनकी पूजा की। फिर उनसे कहा कि आप यहाँ भोजन कर मुझे कृतार्थ करें। मैं 34 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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