Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 14
________________ संन्यासी के बंधन बाहर के कम भीतर के ज्यादा होते हैं, इसलिए वह उन्हें नहीं तोड़ पाएगा और जब तक ऐसा न होगा वह कपिल का जीवन जियेगा और बाद में स्वर्ण मछली बन कर अपनी दुर्गन्ध से वातावरण खराब करेगा। वह भगवा बाना भले ही पहन ले, किन्तु उसकी दुर्गन्ध उसकी पोल खोलने के लिए काफी है। जीवन को जब तक सम्मोहन के दायरे से दूर नहीं करोगे, तब तक बदलाव नहीं आ सकेगा। दीक्षा ले लोगे, प्रवजित हो जाओगे, मगर जीवन में परिवर्तन नहीं कर पाओगे। ऐसा न हुआ तो मात्र वेशान्तरण किस काम का? एक बात और ध्यान में ले लेने जैसी है कि हमारा जीवन संसार से विपरीत जाने के लिए नहीं है, अपितु उससे उपरत होने के लिए है, मुक्त होने के लिए है। अगर संसार की निंदा में तुम्हारे वचन प्रयुक्त हो रहे हैं, तो उनसे वीतराग का मार्ग न मिल पायेगा। यह तो ऐसा हुआ कि कल तक तुम संसार की तारीफ कर रहे थे, क्योंकि उससे राग था और आज उसकी निंदा कर रहे हो, तो क्या उससे द्वेष हो गया? त्याज्य है मेरे प्रभु, यह द्वेष भी त्याज्य है। आखिर संसार की निंदा से तुम्हें क्या मिलेगा? पहले राग के रूप में तुम्हारे भीतर संसार बसा था और अब द्वेष के रूप में, पर संसार तो बसा हआ ही है। तम संसार से मुक्त कहाँ हो पाये? माना कि कीचड कीचड है, वह त्याज्य है, पर त्याग के बाद उसकी निंदा क्यों? आखिर उसी कीचड ने तम्हें अस्तित्व दिया है, तुम्हारा कमल खिलाया है। इसलिए कीचड़ की निंदा में मत पड़ो क्योंकि तुम्हारी कली कीच से उठकर ही खिली थी, इसलिए वह भी धन्यवाद की ही पात्र है। हाँ. अब तम कमल की तलाश शुरू करो। उस ब्रह्म-कमल की, जो तुम्हारे जीवन को सुवास से सराबोर कर दे। इसलिए वीतराग का अर्थ मात्र राग-मुक्ति ही नहीं है और न ही जहाँ राग-भाव था, वहाँ द्वेष-भाव पैदा करना है। वीतराग को द्वेष-मुक्त भी होना पड़ेगा। तुम्हें बंधनों का स्थानान्तरण थोड़े-ही करना है, तुम्हें तो उससे मुक्त होना है और जो लोग केवल वेशान्तरण करके ही मुनि बनते हैं, वे केवल खूटे बदल लेते हैं और जहाँ-जहाँ राग के, प्रशंसा के भाव थे, वहाँ-वहाँ द्वेष-निन्दा के भाव पैदा कर लेते हैं। कल तक तो तुम धन-सम्पत्ति की तारीफ कर रहे थे, आज उसी की निन्दा कर रहे हो, आखिर दोनों से मानसिक रूप से तो तुम जुड़े ही हो। मैंने बांका के जीवन का एक प्रसंग सुना है जो भारतीय सन्त-परम्परा में अद्वितीय प्रसंग है। बांका वास्तव में एक गृहस्थ संत रांका की पत्नी थी। रांका काफी त्यागी-तपस्वी व्यक्ति थे और अत्यन्त निर्मोही जीवन जीते थे। पति-पत्नी प्रतिदिन जंगल से लकड़ियाँ तोड़कर लाते और जैसे-तैसे एक समय भोजन की व्यवस्था कर लेते। एक दिन रांका-बांका दोनों लकड़ी तोड़ कर आ रहे थे। बांका रांका से कोई दो फलाँग पीछे चल रही थी। अचानक रांका ने देखा कि मार्ग में एक सौनेयों की थैली भरी पड़ी है। रांका दो क्षण रुके, कुछ सोचा और उस सौनेयों की थैली को पास पड़ी मिट्टी से ढकने लगे। तब तक उनकी पत्नी बांका भी वहाँ पहुँच गयी। उसने पूछा 'क्या कर रहे हो?' रांका ने कहा, 'ऐसे ही, कुछ नहीं । यहाँ सौनेयों की थैली पड़ी थी, उस पर मिट्टी डाल रहा हूँ यह सोचकर कि कहीं सौनेयों को देखकर तुम विचलित न हो जाओ।' बांका मुस्कुरायी और कहने लगी, क्यों नाहक मिट्टी को मिट्टी से ढक रहे हो?' रांका के कान पकड़ा, कहा- 'सच में मैं भूल कर रहा था।' 15 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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