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'काला' । ऐसी बहुत-सी बातें पूछी गयीं, जिनमें वह झूठ बोल ही न सके। सबका ग्राफ एक जैसा बनता चला
गया।
आखिर उस मनोचिकित्सक ने पूछा, 'तुम कौन हो ?'
वह आदमी तब तक थक गया था । उसने सोचा, 'झंझट खत्म करो । आखिर कब तक विवाद करता रहूँगा? क्यों न साफ कह दिया जाये कि मैं लिंकन नहीं हूँ । भीतर का सत्य तो मैं जानता ही हूँ कि मैं अब्राहम लिंकन हूँ, अब इन लोगों से कौन सिरपच्ची करे ?'
मनोचिकित्सक ने वह कुछ जवाब दे, उससे पहले ही फिर पूछा, 'क्या तुम अब्राहम लिंकन हो ?'
उसने कहा, 'नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूँ ।'
पर आश्चर्य, नीचे मशीन ने जो ग्राफ दिया, उसमें बताया गया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। बात इतनी गहरी हो गयी कि सच झूठ हो गया और झूठ सच |
हमारे ये बन्धन और आसक्ति के सूत्र भी आरोपित ही हैं। इनको हमने सत्य मान लिया है, जैसे उस व्यक्ति ने अपने को लिंकन मान लिया था। अब अगर आपको कोई कहे कि ये सब झूठ हैं तो आपको उसकी बात ही झूठी लगेगी। इसलिए तलाश करो अपने अन्तर में, कितने बँधे हो तुम अभी तक भीतर से, बाहर में निर्ग्रन्थ कहला कर भी । निर्ग्रन्थ मात्र बाहर से नहीं बल्कि हमें भीतर से होना पड़ेगा। ग्रन्थियाँ तो मनुष्य के भीतर ही हैं। वेश का रूपांतरण तभी उपलब्धिपूर्ण हो सकता है, जब अन्तर का रूपांतरण हो जाये । अन्यथा खूंटे भले ही बदल जाए, तुम्हारे गले में तो रस्सा बँधा ही रहेगा ।
एक गाय के गले में रस्सी डाल दी, फिर उसे किसी खूंटे से बांध दिया। बाद में जरूरत तो उसे वहाँ से हटा कर दूसरे खूंटे से बांध दिया। खूंटा तो बदला, मगर बंधन तो कायम रहा। आदमी के साथ भी ऐसा ही हो रहा है । पहले वह माँ-बाप से जुड़ा रहता है, फिर पत्नी से जुड़ाव हो जाता है। संन्यास लेने के बाद भी आदमी बंधनमुक्त नहीं हो पाता। तब सम्प्रदाय, उपाश्रय आदि का राग भी बंधन हो जाता है। भीतर से रूपांतरित न हो पाने के कारण बंधन के स्थान तो बदलने पर भी जारी रहते हैं ।
खूंटे बदलते गए, मगर जिन्दगी में कहीं कोई बदलाव नहीं आ सका। संसार छोड़ दिया और मुनित्व स्वीकार कर लिया, मगर अन्तर-संसार की आसक्ति नहीं छोड़ पाए। वही आसक्ति, लालसा, कामना का संसार मनोवृत्तियों में छाया रहा। ज्ञानी कहते हैं, संसारी का संसार के प्रति राग व आसक्ति को छोड़ना तो आसान है, मगर एक संन्यासी का संन्यास के प्रति राग तोड़ना मुश्किल है।
संसार के जिन बन्धनों को बन्धन कहते हैं, संसारी सारे बंधन तोड़ सकता है, क्योंकि वे बाहरी बंधन हैं, मगर भीतर में भी तो मनुष्य के अनन्त बन्धन के निमित्त होते हैं। आदमी मुनि बनकर निश्चित रूप से बाहर के कई बन्धनों से किसी अंश तक मुक्त हो जाता है, पर भीतर के बन्धन तो मुनि बनने के बाद मुक्त होते हैं । इसलिए एक संन्यासी बनने के बाद बन्धन-मुक्ति के लिए व्यक्ति की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। I
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