Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 21
________________ समता में जीते रहे', पर हम ? एक मच्छर काट खाये तो बस, पूछो ही मत, मच्छर की खाल खींच दें । प्रति वर्ष पर्युषण में भगवान महावीर का जीवन-चरित्र सुना जाता है, लाखों के चढ़ावे बोले जाते हैं, पर हमारे जीवनरूपांतरण की दृष्टि से ये चढ़ावे कितने सार्थक होते हैं, विचारणीय है। महावीर ने नहीं कहा कि तुम मेरे नाम पर चढ़ावे बोलना या मेरी प्रतिष्ठा करवाने के बहाने अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना । महावीर को इन सबसे कोई मकसद ही नहीं है। हाँ, महावीर को मतलब है हमारे नैतिक जीवन से, अहिंसक जीवन-शैली से, हमारे उज्ज्वल जीवन से-अगर ऐसा कुछ है तो महावीर हमसे खुश होंगे। पर्युषण में जब महावीर का जीवन-चरित्र सुनो तो यह देखो कि महावीर के जीवन में कैसे कुछ घटित हुआ। कितनी लम्बी यात्रा और संकटों को झेलते हुए बीज वटवृक्ष बना । और केवल महावीर के प्रचलित जीवन-चरित्र को ही नहीं, महावीर की अन्तस्-चेतना को बारीकी से समझने की हम कोशिश करें । अध्यात्म का कौनसा मार्ग महावीर ने वरण किया था, विशुद्धतम, आडम्बर मुक्त और आज हमने कौनसा मार्ग उसे बना दिया है, कभी तुलना करो तो लगेगा कि महावीर के साधना-मार्ग में और आज के धर्म के मार्ग में रात-दिन का फर्क हमने बना दिया है। हमने महावीर की साधना की जितनी महिमा गाई, उससे ज्यादा उनके अतिशयों की महिमा गाई है। हमारे लिए उनके अभिनिष्क्रमण का ज्यादा मूल्य नहीं है। हाँ, उनके वर्षीदान की ज्यादा महिमा हमने गाई है । कभी महावीर के ध्यान की चर्चा हमने नहीं की, हमने हमेशा समवशरण की महिमा गाई । सोनेचांदी - हीरे - रत्नों की महिमा गाई । अब भला वीतरागी को इन सबसे क्या लेना-देना है ? उस साधक को हम सोने के सिंहासन पर बैठाते हैं या मिट्टी की चौकी पर, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है। महावीर तो हमसे अनासक्ति की, वीतराग होने की अपेक्षा रखते हैं । राग के माहौल को वीतरागता में बदलो, महावीर की साधना की महिमा गाओ, ध्यान और अध्यात्म की चर्चा करो। सोने-चांदी - हीरे-जवाहरात- ये सब तो माया और वैभव के अंश हैं। पता नहीं, कितने सिकन्दरों के पास यह सब कुछ था । यदि हम महावीर के बाह्य - वैभव की चर्चा करते रह गये, तो अपनी अन्तर्दृष्टि के पलक नहीं खोल पायेंगे। महावीर के अन्तर् - वैभव के सामने यह बाह्य - वैभव नाकुछ के बराबर है। चूंकि हम बाह्य - वैभव में आसक्त हैं, इसलिए उस वीतराग के साथ भी हमने बाह्य- वैभव जोड़ दिया। उस वीतराग की प्रतिमा पर हम सोना-चांदी चढ़ाकर प्रसन्न होते हैं। कहते हो, 'वाह ! क्या आंगी बनी है।' बाह्य-वैभव में जीते हो इसलिए वही तुम्हें पुलकित करता है। ढूँढ़ो, उस वैभव के भीतर छिपे वीतरागता के अपार वैभव को । हम महावीर की अंतस्-चेतना को निहारें । कितनी दया, कितनी करुणा, कितना वात्सल्य ! ओह, इसकी तुलना में तुम किस वैभव को खड़ा करोगे ? किसी ने डंक मारा तो उसके लिए भी दूध की धारा । किसी ने पाँवों में अंगीठी जलाई तो उसके प्रति भी करुणा, किसी ने तेजो लेश्या फेंकी तो उस पर भी दया— 'ओह, कोई सीमा है ऐसे व्यक्ति के अन्तर्- - वैभव की ! ' महावीर के जीवन को, किसी वीतराग के जीवन को सिर्फ सुनने भर तक सीमित मत रखो। सोचो, मैं भी बुद्ध हो सकता था, अरिहंत और सिद्ध हो सकता था। मैं भी दर्द-भरी इस दुनिया के लिए छाया हो सकता था । मैं Jain Education International 22. For Person Private Use Only www.jainelibrary.org

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