Book Title: Adhyatma ka Amrut Author(s): Lalitprabhsagar Publisher: Jityasha Foundation View full book textPage 9
________________ मछली पिछले जन्म में कपिल नामक संन्यासी थी। उसने गुरु महाकश्यप के पास ज्ञान पाया था, मगर वह गुरुद्रोह कर बैठा। संसार के प्रति उसकी आसक्ति इतनी बढ़ी कि वह वापस संसार में लौट गया। 'जब कपिल मरा तो इस जन्म में इसे इस मछली का रूप मिला। उसने महाकश्यप के पास ज्ञान पाया था इसलिए इसका शरीर सोने का हो गया, मगर गुरुद्रोह के कारण इसमें बदबू हो गई।' राजा ने कहा, 'प्रभु ! विश्वास नहीं होता।' बुद्ध ने मछली की ओर देखा, तो वह फड़फड़ाई। बुद्ध ने कहा कि 'तुम चाहो तो अब भी अपनी चेतना जाग्रत कर सकती हो।' उसने कहा, 'प्रभु! मैं आपकी शरणागत हूँ। मेरी भूलों को क्षमा कर दें। मुझे अपने धुंधले अतीत के लिए खेद है और भविष्य को उज्ज्वल करने के लिए मैं कृत्संकल्प होती हूँ।' उसका इतना कहना था कि उसके प्राण निकल गए और जैसे चमत्कार हो गया। उस मृत मछली में से सुगंध आने लगी थी। उसे एक अर्हत का, महापुरुष का, सत्पुरुष का सान्निध्य मिल गया था। एक भगवत्-पुरुष का पावन सानिध्य! घटना तो तब हुई पर हमारे लिए आज भी प्रेरणादायी है। व्यक्ति साधना की पगडंडी पर कदम बढ़ाने के बाद भी गंदगी भरे मार्ग से गुजरता रहता है और मनोविकारों का पोषण करना रहता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो इस गंदगी से निर्लिप्त रहकर आगे बढ़ जाते हैं। दरअसल हमारी आसक्ति के सूत्र इतने बारीक होते हैं कि उनके बंधन दिखाई नहीं देते मगर वे इतने मजबूत होते हैं कि उन्हें तोड़ना कोई आसान बात नहीं होती। यही वे धागे हैं, जिनके बंधन के कारण आर्द्रकुमार बारह वर्षों तक संसार से जुड़े रहे । ये बंधन ऐसे हैं, जिन्हें तोड़ना काफी कठिन है। भीतर के बंधनों का विमोचन बहुत जरूरी है। कोई आदमी संसार त्यागकर पहाड़ों पर चला जाए, गुफा में बैठकर तपस्या करने लगे और सोचे कि मेरे बंधन तो टूट गए। शायद यह भ्रम है। अभी तो बाहर के कुछ बन्धनों से मुक्त होकर आये हो, पर भीतर के बन्धन..... । उनके विमोचन की तो यह शुरुआत है। आदमी बाहर के बंधनों से तो छूट सकता है, मगर भीतर के बंधन से मुक्ति पाना आसान नहीं है । व्यवहार में हिंसा करनी छोड़ भी दोगे, तो क्या होगा, भीतर तो फिर भी हिंसा भरी पड़ी है। बाहर के बंधन का विमोचन तो बाहर से हो सकता है, लेकिन भीतर के बंधन को समाप्त करने के लिए बहुत अधिक प्रयास करने पड़ते हैं। हम जरा भीतर उतरकर देखें कि कैसे-कैसे बंधन हैं। स्थान व पहनावे जरूर बदल जाते हैं, पर आंतरिक बंधन तो रहता ही है। मेरी नजर में साधना या संन्यास मात्र वेश का रूपांतरण या बाह्य-त्याग नहीं है। संन्यास तो मुक्ति-महल का शिलान्यास है, जीवन का आन्तरिक शुद्धिकरण है। वह बाहरी उज्ज्वलता भी किस काम की जिसके अन्तरंग में कल्मषता हो । यह तो ऐसे हुआ कि भीतर में विष भरा है, पर बाहर से अमृत का आरोपण किया गया है। संसार में थे, तब भी हमारा व्यक्तित्व बाह्य तत्त्वों से जुड़ा था और आज संन्यास में आ गये, तब भी बाह्य तत्त्वों से ही हम जुड़े हैं । जुड़ाव तो जारी है। ईमानदारी तो यह कि हमारी आसक्ति टूटती नहीं, मुड़ जाती है, खूटे बदल जाते हैं। पहले घर, दुकान, परिवार, पैसे से राग था और अब गच्छ, सम्प्रदाय, गुरु और शास्त्र का राग कर बैठे। 10 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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