Book Title: Aayaro Taha Aayar Chula Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha View full book textPage 6
________________ आयारो तह आयार-चूला शेष पाँच उद्देशको में भी प्राप्त होते है । पाठ-संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों तथा आचारांग वृत्ति में यह प्राप्त नहीं है । आचारांग चूर्णि में 'लज्जमाणा पुढोपास' (आयारो, सूत्र १६, पृ० ४ ) सूत्र से लेकर 'अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए' (आयारो, सूत्र २६, पृ०६) तक ध्र वकण्डिका (एक समान पाठ) मानी गई है।' चूर्णि में प्राप्त संकेत के आधार पर हमने द्वितीय उद्देशक में प्राप्त तीन सूत्र (२७-२६) शेष पॉचो उद्देशको में स्वीकृत किए है । • आठवे अध्ययन के दूसरे उद्देशक (सू०२१) की चूर्णि२ में 'कुंभारायतणंसि वा' के स्थान पर अनेक शब्द उपलब्ध होते हैं, जैसे-'उवट्टणगिहे वा, गामदेउलिए वा, कम्मगारसालाए वा, ततुवायगसालाए वा, लोहगारसालाए वा ।' चूर्णिकार ने आगे लिखा है-~~-'जचियाओ साला सव्वाओ भाणियवाओ। ... यहाँ प्रतीत होता है कि 'कुभारायतणंसि वा' शब्द अन्य अनेक शाला या गृहवाची शब्दो से युक्त था, किन्तु लिपि-दोष के कारण कालक्रम से शेष शब्द छूट गए। चूर्णि के आधार पर पाठ-पद्धति का निश्चय करना संभव नहीं, इसलिए उसे मूलपाठ मे स्वीकृत नही किया गया। ____ हमने संक्षिप्त पाठ की पूर्ति भी की है। पाठ संक्षेप की परम्परा श्रुत को कंठाग्र करने की पद्धति और लिपि की सुविधा के कारण प्रचलित हुई। पं० वेचरदास दोशी ने ८-१२-६६ को आचार्यश्री तुलसी के पास एक लेख भेजा था। उसमें इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है-"प्राचीन जैन-श्रमण लिखने-लिखाने की प्रवृत्ति को आरंभ-रूप समझते थे, फिर भी शास्त्रों की रक्षा के लिए उन्होंने लिखनेलिखाने के आरम्भ-रूप मार्ग को भी अपवाद समझ कर स्वीकार किया। पर जितना कम लिखना पडे उतना अच्छा, ऐसा समझ कर उन्होंने शास्त्र की रक्षा के लिए ही, हो सके वहाँ तक कम आरंभ करना पडे, ऐसा रास्ता शोधने का जरूर प्रयास किया। इस रास्ते की शोध से 'वण्णओं' और 'जाव' दो नए शब्द उनको मिले। इन दो शब्दो की सहायता से हजारो श्लोक वा सैकडो वाक्य कम लिखने से उनका आरंभ कम हो गया और शास्त्र के आशय में भी किसी प्रकार की न्यूनता नही हुई।" १. देखे-आयारो, पृ०८ पादटिप्पण सख्याक २७ पृ०११ पादटिप्पण सख्याक २ पृ०१४ पादटिप्पण सख्याक १, पृ० १६ पादटिप्पण सख्याक ३, पृ० १६ पादटिप्पण सख्याक ४। २: आचारांग चुणि, पृ० २६०-२६१ । ३ वही, पृ० २६१।Page Navigation
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