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__ आवश्यवसूत्रस्य गायावः' (६ । १ । ७८) इत्यादिवटा ऋम्किाचये 'मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कायेन कुन्तिमप्यन्य न समनुनानामी'-त्यनमीष्टोऽय आपघेत, तद्वारणार्थ निविषनेत्युना, तेन मनसा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तम प्यन्य न समनुजानामि, पाचा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजा नामि, एव कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामीत्यर्थी भवति । यद्वा पूर्व सामान्यतस्विरिषनेत्युक्त्वा केन विविधेनेति जिज्ञासाया
ग्रहण करो।' तो इस वाक्य में क्रमसे 'हेय' के साथ 'त्यागो' का सम्बन्ध हो जाता है और 'उपादेय के साथ 'ग्रहण करो' का। इसी प्रकार 'चोलपट्टा चदर पहनो, ओढो' कहने से यह अर्थ होता है कि 'चोलपट्टा पहनो और चद्दर ओढो', इसी प्रकार 'त्रिविधन' (तीन प्रकार से) पद न रखते तो ऐसा अनिष्ट अर्थ हो जाता कि मनसे न करे, वचनसे न करावे और कायसे अनुमोदना न कर इस अनिष्ट अर्थ का परिहार करने के लिए 'त्रिविधेन' पद रखन से यह अर्थ हुआ कि-(१) मनसे न करूँ, (२) न कराऊँ (३) न करते हुए को भला जान । (४) वचन से न करूँ, (६) न कराऊ, (६) न करते हुए को भला जानूं। (७) काय से न करूँ, (८) न कराऊ, (९) न करनेवाले को भला जान ।
अथवा पहले सामान्यरूप से कहा है कि तीन प्रकार से न
સાથે “ત્યાગીને સબંધ થઈ જાય છે અને “ઉપાદેયની સાથે “ગ્રહણ કરેના એજ રીતે “લપટ્ટો ચાદર પહેરે એ કહેવાથી એ અર્થ થાય છે કે શૈલપટ્ટી पडे। मन या४२ माढा में शत त्रिविधेन (३१ ॥३) श६ - राज्य डात તે એ અનિષ્ટ અર્થ થઈ જાત કે મનથી ન કરે, વચનથી ન કરાવે અને કાયાથી ન અનુમોદના કરે અનિષ્ટ અર્થને પરિહાર કરવાને માટે ત્રિવિધેન શબ્દ આપે છે, એમ ત્રિવિધેન શબ્દ આપવાથી એ અર્થ થયે કે-(૧) મનથી ન કરે, (२) रापु, (3) न ४२नारने सो त, (४) क्यना न ४३, (५) न ४रापु, (6) न नारने म , (७) याथी न ४३, (८) न ४२ (6) ન કરનારને ભલે જાણુ
અથવા પહેલા સામાન્ય રૂપે કહ્યું છે કે “ત્રણ પ્રકારે ન કરૂ પરંતુ તે ત્રણ