Book Title: Aavashyak Sutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 524
________________ ३२० आवश्यकसूत्रस्य नामधेय नाम यस्य तत् । 'ठाण' स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थान लोकाग्रलक्षण 'सपनाण' सम्पाप्तेभ्यः समाश्रितेभ्यः। 'नमो जिणाण' नमो जिनेभ्यः, कीदृशेभ्यः ? 'जियभयाण' जित भय यैस्तेभ्य इति सिद्धपक्षे, अर्हत्पते तु 'नमोत्थुण जात्र सपाविउमामस्स' नम्गेऽस्तु यारसिद्धिगतिनामक स्थान सम्माप्तुकामाय, 'ण' इतिवाक्यालङ्कारेऽव्ययपदम् ।। मू० २ ॥ - इत्य नमस्कारान्त प्रत्याख्यानमकरण परिसमाप्य सम्पति तत्पारण समापनविधिरुच्यते-'फासिय' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ फासिय (१) पालिय (२) सोहिय (३) तीरिय (8) किहिय (५) आराहिय (६) अणुपालिय (७) भवइ, ज च न भवइ, तस्स मिच्छा मि- दुक्कड ॥ सू० ३ ॥ ॥ छाया ॥ स्पृष्ट (१) पालित (२) शोधित (३) तीरित (४) कीर्तितम् (५) __ आराधितम् (6) आज्ञयाऽनुपालित (७) भवति, यञ्च न भवति, तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ मू० ३॥ ॥ टीका ॥ मया स्वीकृत प्रत्याख्यानमिति शेष., 'फासिय' स्पृष्ट कायादिना भगवान को तथा मोक्ष को प्राप्त होनेवाले अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो । सू० २॥ इस प्रकार नमस्कारपर्यन्त प्रत्याख्यान की विधि करकर अब उसके पारण की विधि दिखलाते हैं- 'फासिय' इत्यादि । मुझ से स्वीकृत प्रत्याख्यान का काय आदि से सेवन, बार यार उपयोग देकर सरक्षण, अतिचार शोधन, समाप्तिका समय हो બાધા રહિત, પુનરાગમન રહિત, એવા સિદ્ધ સ્થાન અર્થાત મને પ્રાપ્ત થયેલા સિદ્ધ ભગવાનને તથા મેલને પામવાવાળા અરિહન્ત ભગવાનને નમસ્કાર છે (૨) આ પ્રમાણે નમસ્કારપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાનની વિધિ કહીને હવે તેને પાળવાની दियिता छ "फासिय" त्या મારાથી સ્વીકૃત પ્રત્યાખ્યાનનું શરીર આદિથી સમ્યફ સેવન, વાર વાર ઉપગ

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