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{ xi } वीतराग के गुणों का उत्कीर्तन कर उनके गुणों को अपनाने की दिशा में प्रस्थान नहीं हो सकता। प्रमोदभाव या गुणग्राहकता का विकास होने पर ही व्यक्ति स्वतः नम्र एवं सरल बन जाता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना कर सकता है अतः वंदना के बाद प्रतिक्रमण आवश्यक का क्रम उपयुक्त है। दोषों के परिमार्जन में कायोत्सर्ग आवश्यक है। तन और मन की स्थिरता सधने पर दोषों का परिमार्जन स्वत: हो जाता है। व्यक्ति के भीतर जब स्थिरता व एकाग्रता सधती है, तभी वह वर्तमान में अकरणीय का प्रत्याख्यान करता है अथवा भविष्य में भोगों की सीमा हेतु संयमित होने का व्रत लेता है। संभव है इसीलिए प्रत्याख्यान को अंतिम आवश्यक के रूप में रखा है। सभी आवश्यक आपस में कार्य कारण की शृङ्खला से बंधे हुए हैं अतः एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कुंदकुंद के साहित्य में षडावश्यक के नाम भिन्न मिलते हैं- (1) प्रतिक्रमण (2) प्रत्याख्यान (3) आलोचना (4) कायोत्सर्ग (5) सामायिक (6) परम भक्ति ।
आवश्यकों का प्रयोजन
अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के अधिकारों का प्रयोजन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। वहाँ आवश्यक के 6 नाम हैं
सावज्जजोगविरई, उक्तित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निदंणा, वणतिगिच्छा गुणधारणा चेव ।।
(1) सावद्ययोगविरति (2) उत्कीर्तन (3) गुणवत् प्रतिपत्ति (4) स्खलित निदंना (5) व्रण चिकित्सा (6) गुणधारणा।
सर्वप्रथम सामायिक आवश्यक में पापकारी प्रवृत्ति से दूर रहकर समता पूर्वक जीवन जीने का संकल्प किया जाता है। दूसरे चतुर्विंशति आवश्यक में सर्वोच्च शिखर पर स्थित महापुरुषों के गुणों की स्तवना की जाती है इससे अंत:करण की विशुद्धि होने के कारण दर्शन की विशुद्धि होती है। अनुयोगद्वार चूर्णि के अनुसार दर्शनविशोधि, बोधिलाभ और कर्मक्षय के लिए तीर्थङ्करों का उत्कीर्तन करना चाहिए। तृतीय वंदना आवश्यक गुणयुक्त गुरुजनों की शरण एवं उनकी वंदना की बात कहता है जिससे उनके गुण व्यक्ति के भीतर संचारित हो सकें और अहंकार का विलय हो सके। उत्तराध्ययन सूत्र में वंदना से जीव सौभाग्य, अप्रतिहत आज्ञाफल और सबके मन में अपने प्रति प्रियता का भाव पैदा करता है। साथ ही नीच गौत्र का क्षय कर उच्च गौत्र का उपार्जन करता है। चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक में कृत दोषों की आलोचना की जाती है जिससे प्रतिदिन होने वाले प्रमाद का परिष्कार और शोधन होता रहे। प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छिद्रों को ढ़कता है। कायोत्सर्ग से संयमी जीवन के व्रणों की चिकित्सा होती है, साथ ही भेदविज्ञान की धारणा पुष्ट होती है कायोत्सर्ग व्यक्ति को निर्धार और प्रशस्त ध्यान में उपयुक्त करता है। आगमों में कायोत्सर्ग को सब दुःखों से मुक्त करने का हेतु माना है। अंतिम प्रत्याख्यान आवश्यक के माध्यम से भविष्य में गलती न करने के संकल्प की अभिव्यक्ति की जाती है, जिससे इच्छाओं का निरोध तथा संबर की शक्ति का विकास होता रहे प्रत्याख्यान गुणधारण करने का उत्तम उपाय है।
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