Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 17
________________ गुण-पर्याय और उत्पाद-व्यय का आधारभूत कौन? उत्तर है- एकमात्र द्रव्य । द्रव्य ही न हो तो उत्पाद व्यय किसमें होगा? गुण–पर्याय किसके? द्रव्य के कि अन्य किसी के? जी नहीं, द्रव्य के अतिरिक्त ऐसा कोई है ही नहीं कि जिसकी गुण–पर्याय हो । और दूसरी तरफ ये कहलाते हुए विद्वान जिन्होंने सर्वं शून्यं कहकर द्रव्यरूप पदार्थ को अभावात्मक ही कह दिया और फिर उत्पाद–व्यय मानने जा रहे हैं। नदी में से पानी को सारा उलेच दिया और फिर रेती रही तब पानी पीने गए। इस तरह द्रव्यरूप सत् पदार्थों को ही शन्यात्मक कहना और फिर उन्हें अनित्य-क्षणिक कहना यह कहाँ तक उचित है? अब आप ही सोचिए। जब ज्ञान ही गलत है तो उसके आधार पर ध्यान कैसा होगा? और ऐसा ध्यान वर्षों तक करने पर भी किसको सही-यथार्थ ज्ञान हुआ है ? संभव ही नहीं है। ज्ञान का आधार ज्ञेय पदार्थ कि... ज्ञेयभूत पदार्थों का आधार ज्ञान? क्यों और कसे मानना चाहिए? सच देखा जाय तो ज्ञान ज्ञेय पदार्थों के आधार पर रहता है और ज्ञेय पदार्थों का प्रकाशक ज्ञान होता है । ज्ञान को प्रदीप की तरह स्व-पर-व्यवसायी कहा है। स्व-पर-प्रकाशक है । इसलिए ज्ञान भी सही होना चाहिए। और उसके आधारभूत ज्ञेय पदार्थों का स्वरूप यथार्थ-सही-वास्तविक ही होना चाहिए। ज्ञेय पदार्थों को विपरीत-विरुद्ध अर्थ में नहीं मानना । जो पदार्थ जैसा है उसका स्वरूप भी विकृत करके मानना और फिर ऐसे ज्ञान को ही आधारशिला मानकर चलना यह तो अन्धे के कूपपंतन के जैसा ही होगा। और इतना ही नहीं ऐसे ज्ञान पर आधारित ध्यान की प्रक्रिया में जाना यह कहाँ तक उचित होगा? फिर ध्यान कहाँ से सही होगा? ध्यान तो ज्ञानजन्य आनन्द की अनुभूति करने की सुन्दर प्रक्रिया है । ज्ञान प्रापक है । अतः ध्यान का आधार ज्ञान पर है । ज्ञान ही विपरीत एवं विकृत होगा तो फिर ध्यान कैसा होगा? यदि दूध ही फटा हुआ, बिगडा-सडा हआ खराब होगा तो उसमें से आगे की प्रक्रिया होगी क्या? दहींछास-मक्खन और घी बनेगा क्या? और बनेगा तो कैसा होगा? ध्यान तो घी की तरह अन्तिम प्रक्रिया है । इसके लिए आधारभूत .. ज्ञानरूप दूध ही विकृत खराब होगा तो ध्यान फिर कैसा होगा और कैसे होगा? इसलिए ज्ञान और ध्यान दोनों की संपूर्ण शुद्धि होनी अत्यन्त आवश्यक है। ध्यान का फल निर्जरा “ध्यानस्य फलं निर्जरा” ध्यान का फल निर्जरा बताया है । आत्मा पर लगे आठों कर्मों का क्षय करना ही साधक का चरम लक्ष्य है। इसके लिए प्रबल निर्जराकारक धर्म ९८४ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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