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Bahaki
समय
हस्ताक्षर
PESlear
मुनि चन्द्रप्रभ सागर
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समय के हस्ताक्षर
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समय के हस्ताक्षर
मुनि चन्द्रप्रभ सागर
जयश्री प्रकाशन
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आशीर्वाद आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरि जी म.
सत्प्रेरणा मुनिराज श्री महिमाप्रभ सागर जी
संयोजन मुनि श्री ललितप्रभ सागर जी
सम्पादन मिश्रीलाल जैन
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प्रकाशक
जयश्री, जयश्री प्रकाशन, २२-ए, बुधु ओस्तागर लेन
कलकत्ता-७ ० ० ० 06.
प्रथम संस्करण : जनवरी, १९८५
मूल्य
७ रुपये
मुद्रक आरोग्य प्रिंटिंग प्रेस, रजगृह-८ ० ३११६ ( बिहार ,
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प्रज्ञापना
मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर जी हिन्दी के जाने-माने साहित्यकारों में से एक हैं । वस्तुतः उन्होंने जीवन की सकल स्पृहाओं का परित्याग कर साधनापथ अंगीकार करते हुए उन भूमिकाओं की सम्प्राप्ति की है, जो एक विचारक, कवि, लेखक और साधक की सहज साधना कही जा सकती है । युवा होते हुए भी उनके अनुभव और चिन्तन परिपक्व, परिष्कृत तथा प्रभावोत्पादक हैं । उनका साहित्य सर्जन किसी सम्प्रदाय - विशेष की परिधि में सीमित रह कर नहीं, प्रत्युत् समस्त मानव जाति के अभ्युदय को, विश्व बन्धुत्व तथा विश्व शान्ति की उदात्त भावना को सामने रखकर हुआ है ।
प्रस्तुत कृति मुनिश्री की काव्यगत कृतियों में एक है। इसमें उनकी दार्शनिक, धार्मिक तथा नैतिक विविध नई कविताएँ चयित की गई हैं, जिससे कृति सार्वभौमिक बन गई है। इसकी प्रत्येक कविता की भाषा-शैली अभिव्यंजना-शक्ति एवं भाव- गूढ़ता अनुपम, अनुत्तर, अद्वितीय है । ऐसी श्रेष्ठ कृति का प्रकाशन करते हुए हमें गौरव एवं प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक है ।
कृति के प्रेरणासूत्र - श्रद्ध ेय मुनिराज श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज, संयोजक - पूज्य मुनि श्री ललितप्रभ सागर जी म० और सम्पादक - भाई श्री मिश्रीलाल जी जैन के प्रति हम हार्दिक आभारी हैं, जिनके सहकार एवं सहयोग से कृति को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना सम्भव हो सका । अंत में, हम उदार हृदया श्रीमती कमलाबाई धर्मपत्नी श्रीमान् ज्ञानचन्द जी गोलेच्छा, जयपुर और श्रीयुत् शान्तिलाल व्रजलाल भाई कोठारी, पटना के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहेंगे, जिन्होंने इस पुस्तक की उपयोगिता समझकर एक साथ इसकी क्रमशः २०० तथा १०० प्रतियाँ क्रय कर हमारे प्रकाशनकार्य को प्रोत्साहन दिया ।
प्रस्तुत कृति पर विज्ञ समीक्षकों एवं सुधी पाठकों के मन्तव्यों तथा सुझावों का स्वागत है ।
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प्रकाशक
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मशभाशंसा
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म प्रिय चन्द्रप्रभ सागर तुमने, ऊर्ध्व चन्द्र तक स्पर्श लिया है। छ कर अन्तस्तल सागर का,
सार्थक अपना नाम किया है।
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कविता क्या है, मानवता के
जीवन का रस-बोध प्रवाहित । ___ सन्तों की संध्या-भाषा में, द्वयर्थक मामिकता उद्भाषित ।।
.
..
युग-युग जिओ, सघन तमस मेंअभिनव स्वर्णिम दीप जलाओ। तप्त धरा पर सद्भावों के, सुधा-मेघ चहुँ दिस बरसाओ॥
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-उपाध्याय अमरमुनि
2.
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आमुख
निर्मल आत्मा समय है। सर्व विकल्पों से अतीत आत्मा का शुद्ध स्वभाव समयसार है। कथ्य-अकथ्य विचारों का कथन, लभ्य-अलभ्य अनुभवों का प्रगटन, दृष्ट-अदृष्ट दृश्यों का अंकन समय के हस्ताक्षर हैं। ___समय सर्वाधिक अर्थपूर्ण तत्त्व है। इससे ज्यादा सार्थक तत्त्व मेरे लिए अप्राप्य रहा । चैतसिक जीवन की उपयोगिता के लिए चेतना के पास समय ही एक उपाय है, एक साधन है। समय तो सार है। इससे हटना साधना और जीवन के प्रस्थान-बिन्दु से असमीपस्थ रहना है ।
समय की ही नींव पर दर्शन का भवन खड़ा होता हैं । समय का अस्तित्व उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से युक्त है । उसके साथ यही तीन प्रकार की प्रक्रिया अन्वित है। अर्थात् कुछ सृष्ट हो रहा है, कुछ नष्ट हो रहा है और कुछ शाश्वत तथा सातत्य-संयुक्त है। समय का यहो त्रिविध रूप दर्शन है । दर्शन विचार-मंथन का परिणाम है। समय और विचार का संगम हर कार्य को सिद्ध कर सकता है । महान् से महान् शोक को भी यह निस्तेज बना देता है । उचित समय पर उचित विचार का समागम आवश्यक है । वस्तुतः यह समय की सार्थकता का उपाय है।
समय का प्रत्येक क्षण मूल्यवान् होता है, जैसे स्वर्ण का हरेक कण । समय सबसे महान् है, देव से भी ! देव को तो पूजा, प्रार्थना आदि के माध्यम से बुलाया जा सकता है, परन्तु बीता हुआ समय लाख प्रयत्न करने पर भी वापस नहीं बुलाया जा सकता। सत्यत: समय उत्ताल तरंगों की भाँति है। अतः
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उसे रोका नही जा सकता, किन्तु उसका उपयोग करना ही उसकी बचत करना है। इसलिए कौन बुद्धिमान ऐसा है जो उपस्थित समय का अपनी समृद्धि के लिए उपयोग नहीं करता।
समय ही जीवन है । जीवन समय से ही परिनिर्मित हुआ है। किन्तु जीवन अत्यल्प समय का है । जैसे-जैसे समय बीतता है, वैसेवैसे जीवन छोटा होता जाता है। सूर्य पूर्व मे उदित होने के साथ हो पश्चिम की ओर यात्रा प्रारम्भ कर देता है। सूर्यास्त से पहले, अंधकार की पकड़ से पूर्व हमें समय की अदृश्य निधि को और उसकी परतों में छिपे रहस्य को खोज निकालना है। हम सदा समय के प्रकाश को प्राप्त करने के लिए आतुर हैं, लेकिन भाग्य की विडम्बना ही कुछ ऐसी है कि उसकी उपलब्धि होने पर हम सोये मिलते हैं । जब जाग्रत होते हैं तो अंधकार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता।
समय हाथ से निकल जाने पर केवल पश्चाताप ही हाथ लगता है, परन्तु बाद में पछताने से क्या लाभ ? जब कृषि सूख तो वर्षा किस काम की ! समय को बचाना तथा समय की शुद्धता जानना ही ‘सामायिक' है। सामायिक की चरम परिणति ही समाधि है। इस अवस्था में समय ही एकमात्र अवशिष्ट रहता हैऐसा प्रकाश-स्तम्भ जो प्रतिपल प्रभा प्रदान करे।
मुनि चन्द्रप्रभ सागर
गणतन्त्र-दिवस,
१९८५
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कविता-क्रम
१. अद्भुत कृति २. यात्रा ३. मौन की भाषा ४. जीवन - शिल्पी ५. सोहम् ६. आकार - निराकार ७. प्रयोगशाला ८. नाविक ६. अन्धा उत्साह १०. मूर्छा ११. नाथता की ओर १२. स्वारोहण १३. क्षणभंगुर १४. जागरण १५. तुम्हारा ईश्वर – तुम हो १६. इसे कहते हैं क्षमा / अहिंसा १७. अन्तर् - द्वन्द्व
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१८. मनोमौन १६. ज्योति
२०. शब्द - जाल
२१. राजपथ
२२. विलक्षण नाटक
२३. समरसता
२४. आत्मा वै परमेश्वरः
२५.
प्रतिबिम्ब
२६.
२७.
२८. हस्ताक्षर
२६. भूमा की पेक्षा
द्विपथी शैशव
वहीं के वहीं
३०. सजगता
३१.
३२. मार्दव
३३.
३४.
अपराजित
विडम्बना
विज्ञान से भेंट
३५. सृष्टि का सन्त
३६.
शहीदों के प्रति
३७.
वर्तमान और अतीत
३८.
३६. आदमी
४०. मुखौटे दीप जले
४१.
४२. सभ्यता
४३. समय - सिन्धु में
४४. अमर दीपावलियाँ ४५. उपलब्धि की कला
४६. ममत्व
४७. आने के बाद
भीड़ भरी आँखें
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५०
५१
५२
५३
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४८.
परिग्रह
४६.
तब और अब
५०. युग - विकृति
५१
आश्चर्य
५२.
दशा
५३. न्याय के द्वार रक्तपिपासु
५४.
५५. ज्योतिर्मुख
५६. निष्प्राण साहित्य
५७. ऐसे होता है परिवर्तन ५८. विध्वंस
५६. युग - दर्पण
६०. पुनरंग की अपेक्षा
६१. परम्परा के प्रसंग
६२. पुरुषार्थ ६३. शिक्षा - प्रणाली ६४. अरिग्रह
६५. पहरा
६६. ग्राम और रोटी
६७. बीज में वृक्ष
६८. अवतार
६६. उपेक्षा
७०. परिवर्तन
७१. विद्यालय
७२. विकास - पथ
७३. रोटी का प्रश्न
७४. अनुत्तर उत्तर ७५. एकता
७६. शंकालु दीमक ७७. माँ सरस्वती
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मुनि चन्द्रप्रभ सागर
आविर्भाव : ___ वि० सं० २०२१, वैशाख शुक्ल पक्ष ७
अभिनिष्क्रमण : वि० सं० २०३६, माघ शुक्ल पक्ष ११
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समय के हस्ताक्षर
रचना-काल : सन् १६८३-८४ ई०
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अद्भुत कृति
पलट - पलट कर
एक - एक पृष्ठ पढ़ रहा ध्यानपूर्वक तितली - सी आकर्षक एक अद्भुत कृति वही है विश्व
वही है सृष्टि ।
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यात्रा
चली आ रही है।
संसार की यात्रा पर
दूर- सुदूर से
निरन्तर गतिशील
जीवन की नौका
छू-छु कर
जन्म-मरण के
जर्जरित तटों को ।
सुदीर्घ काल की यात्रा से यात्रा की विकलता से
विह्वल, व्याकुल
मुक्तिबोध होगा
इसी अन्तस् चेतना से
प्राप्त होगा जिस क्षण आत्मा का द्वीप ।
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मौन की भाषा
विचित्र है
मौन की भाषा बाहर से स्तब्ध भीतर से मुखरित भावों की उत्पत्ति भावों का विनिमय अनंकित हैं शब्द - कोष में वे अभिव्यक्त अर्थ स्वर नहीं आत्मा के संस्कार हैं अगाध अर्थों के अक्षय भण्डार हैं ।
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जीवन-शिल्पी
पाषाण
रूप में भद्दा, आकृति में बेडौल जग की दृष्टि में उपेक्षित,
तिरस्कृत उसका मूल्य है कितना ?
शिल्पी
गंभीर मुद्रा में अजित अद्भुत कला से अनवरत कर रहा है चोट पर चोट छैनी हथौड़ी निर्मम कला की ओट ।
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दुग्ध में नवनीत पाषाण में प्रतिमा देवालय में दीप्ति
जन - जन से पूजित
धन्य है शिल्पी शिल्पी की अद्भुत
शिल्प - कला शिल्पी महान् है मेरा पथ - प्रदर्शक
निर्माता
प्रज्ञा की छैनी से उसने उतारा है राग-द्वष घृणा का कल्मष प्रतिक्षण आ रहा है प्रकाश हृदय - कक्ष से निर्वासित
अंधियारा हे परम गुरु प्रज्ञा - शिल्पी! सास-सांस में व्याप्त है
उपकार तुम्हारा ।
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सोहम्
अहम् का वक्तव्य
आत्मा की स्वीकृति है; अहम्, इदम् का ऐक्य
सोहम् की प्रस्तुति है ।
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आकार-निराकार
देख रहे तुम
अपलक, अमन्द
जहाँ-जहाँ आकाश, और जो देख रहे
वही कह रहे
यही है आकाश; पा जाआगे
उससे भी पार
अन्तहीन आकाश । कारण,
खोज रहे तुम
रूप आकाश का, है जहाँ अवकाश वहीं - वहीं आकाश रूप नहीं; अरूप है कैसे देखोगे
अरूप में रूप तुम निराकार में आकार तुम !
७
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गोपनीय है आत्यन्तिक गोपनीय मनुष्य की आन्तरिक प्रयोगशाला;
सार्वजनीन हैं
विज्ञान की प्रयोगशाला
किन्तु
प्रयोगशाला
देख सकता है प्रत्येक व्यक्ति
इस पर किये गये प्रयोग को ।
मानव के भीतर की प्रयोगशाला !
अत्यन्त निजी
नितान्त स्वयंगत
देख सकता है प्रयोगशाला को
उसमें हुए प्रयोगों को एक मात्र प्रयोक्ता ही ।
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नाविक लम्बी है यात्रा सागर विराट
अप्रमत्त रहना
छुट न जाए
____ आत्म - धर्म की पतवार । विवेक से चलाना
भरी हुई है .. ____ जीवन की नौका
____ ज्ञान - कर्म - भार से, एक भी हो गया छिद्र
निमज्जित हो जाओगे
अनन्त सागर में पहुँच न पाओगे
सागर के उस पार जहाँ है मुक्ति का प्रकाश चमकता स्वर्णमयी संसार।
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अन्धा उत्साह
तुम उत्साह की बात करते हो मगर
बेलगाम धोड़ा है
ज्ञानरहित उत्साह उत्साह सही हो अन्यथा क्षति ही क्षति है
अन्धे उत्साह से ।
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मूर्छा
डूबे हैं जो
संसार - सागर में उठे नहीं ऊपर तर नहीं सकते
उसके उत्ताल प्रवाह में बिना तिरे
पहूँचेगे कैसे
साग़र के उस पार ?
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नाथताकीओर
ऐश्वर्य और राज - सत्ता के बीच
तथागत महावीर तुम ही स्वामी थे
अपने आप के निसंग
संसार - सागर में
चलायी थी देह रूपी नौका
आत्मा रुपी नाविक ने साधना की सबल
___पतवारों के सहारे। दृष्टि थी सम्यक् साधन साध्य के प्रति विवेक विशुद्ध था
वैराग्य अनासक्त
१२
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चिर संग थीं
लोक - मंगल की ऋचाएँ
विश्व कल्याण की गाथाएँ
तुमने प्रकाशित की
अनुभूत परिभाषा
सनाथ - अनाथ की
दुष्प्रवृतियों में आत्मा अनाथ है सत्प्रवृतियों में सनाथ ।
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स्वारोहण
आ जाए 'पर' से 'स्व' मिल जाए 'स्व' में 'स्व'
सदा-सदा के लिए प्रकट होगी
आत्म - शक्ति की
फिर निर्धूम अनन्य ज्योति ।
१४
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क्षणभंगुर
हम क्षणभंगुर,
तुम क्षणभंगुर, खेल रहे हैं
क्षणभंगुरों से क्षणभंगुर। बना रहे हैं आणभंगुर ही
क्षणभंगुरता का इतिहास; शाश्वतता का कैसे हो
फिर हमें विश्वास
कितना पागल संसार ?
१५
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जागरण
भेड़ समझकर भ्रमवश स्वयं को घूमता रहता है भेड़ - समूह के साथ
नृसिंह । दर्शन करता है जब स्व - रूप का
सरोवर के शीशे में हो जाता साक्षात्कार शाश्वत सत्य का फिर तो पर्याप्त है
भेड़ो को भगाने के लिए नृसिंह का एक कदम एक दहाड़,एक गर्जन ।
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तुम्हारा ईश्वर - तुम हो
ईश्वर तुम्हारा
तुम्हारे भीतर
तुम ही कारक
तुम ही नियामक
तुम ही हो अपने ईश्वर ।
तुम ही हो संहारक
पार कहाँ
या संचालक
अपने जगत् के
तुम्हारी लीलाओं का तुम ही हो
महालीलाधर ।
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इसे कहते हैं क्षमा अहिंसा
विषधर या विषाक्त ज्वार का उभार विषभरी भयंकर फुकार
विषपूर्ण ज्वालाएँ क्रोध का ज्वलंत उदाहरण
चण्डकौशिक क्रोध में रल हिंसा में मत्त रुधिर में मन निबास निर्जन
भयंकर दैत्य - सा विकराल लप्त लोह - सा ताप मार रहा विषदंत, क्रोधी ।
१८
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क भाश्चर्य घटित हुआ आक्रोश की धारा बही
क्या यह रक्त है ? नहीं, दुग्ध क्रोध के प्रतीकार में क्षमा का अनुपम स्रोत है
आत्म - सम्बल का स्तम्भ करुणा का प्रतिबिम्ब दया का सागर अहिंसा का गायक खड़ा है निर्भय ज्योतिर्मय तथागत महावीर
क्रोध और क्षमा हिंसा और अहिंसा
लौह और पारस
चण्डकौशिक और महावीर क्षमा की जय,
अहिंसा की विजय ।
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अन्तर्-ब्दन्द
जब सन्यास में होते हैं लगता है
गार्हस्थ्य अच्छा; जब गार्हस्थ्य में होते हैं लगता है
सन्यास अच्छा । जैस पिंजरे के पक्षी को लगता है
आकाश अच्छा; आकाश विहारी पक्षी को लगता है
पिंजरा अच्छा ।
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मनोमौन
मनोमौन मुनित्व का विनियोजन
ध्यान का अन्त्य चरण अवशेष कहाँ फिर
विचार
विचारों में विकार । निविचार
निर्विकार ।
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ज्योति दीप की ज्योति
आत्म - ज्योति का
अनुपम प्रतिबिम्ब है अलौकिक आत्म - ज्योति
प्रभा - पुञ्ज का परम प्रतीक है, सत्यं - शिवं - सुन्दरम्
के समीप है । दीप और आत्मा दोनों में प्रकाश है अद्भुत द्वन्द्व समास है बाह्य - आलम्बन तुच्छ है आत्म - उदय, आत्म - उद्धार निर्मल, निष्कलंक है।
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आलोक - आकांक्षी
आत्म - परीक्षण हेतु अन्तस् - निरीक्षण हेतु दीप - ज्योति से प्रकट करते हैं
आत्म - आलोक । राख हो जाता है
कषाय - कचरा जलकर नष्ट हो जाता है।
तृष्णा - पतंगा बचेगा भी कहाँ फिर
कर्म - अँधियारा प्राप्त कर आत्म - दर्शन होकर परमात्म - शरण शेष फिर कहाँ मरण ?
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शब्द-जाल
उलझो मत शब्दों के दांव - पेंच में अन्यथा मकड़ी की तरह उलझ पड़ोगे अपने ही गुथित जाल में तुम्हें मतलब है शुक्ति से या मोती से?
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राजपथ
गुजरने पर तर्क की
टेढ़ी - मेढ़ी पगडंडियों से उपलब्धि होती है
सत्य के राजपथ की पश्चात् यात्रा प्रशस्त है
पश्चवर्ती जीवन की।
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विलक्षण नाटक
संसार के रंगमंच पर चिर क्षणों से देख रहा हूँ एक विचित्र नाटक
नृत्य करा रहा है कर्म - नायक जीव - नट को कहलाता है कभी राजा, कभी रंक; कभी साधु, कभी पंडित; है कोई ऐसा वेश पहना न हो छोड़ा न हो इसने चौरासी लाख योनियों में।
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समरसता
'तू' का 'मैं, में निमज्जन 'मैं, का 'तू' में निमज्जन हो पाएगा तभी समरसता का
सच्चा सर्जन ।
રા
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आत्मा वै परमेश्वरः
कस्तूरी की गन्ध पा खोज रहे क्यों
धरती - अम्बर !
सन्धान कर रहे
जिस वस्तु की तुम,
तुम्हारी सम्पदा
आवेष्टित है
पड़ी है वह तो
तुम्हारे खीसे - अन्दर ।
तुम हो
चिर काल से वह
निज धट - भीतर ।
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सर्वेक्षण कर रहा हूँ
प्रतिबिम्ब
उपदेश था
प्रभावित हैं सब
समय के दर्पण में
जनजाति के प्रतिबिम्ब को ।
निष्क्रियता से
निष्काम होने का;
हो गये निष्क्रिय हम
निष्क्रियता में सक्रिय हम ।
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जीवन निर्माण शिशु का
गमलों में पौधेवत्
द्विपथी शैशव
-
मुर्झा सकता है
नन्हा - सा लू का झोंका ।
जीवन निर्माण शिशु का
अरण्य के वृक्षवत्
बाल न बाँका कर सकता कोई झंझावात |
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पहीं के पहीं
चलता रहता है बन्धी लकीर में जीनेवाला
वर्तु लाकार कोल्हू के बैल की भाँति ।
वापस आ पहुँचता है लम्बी यात्रा के बाद भी वहीं के वहीं प्रारम्भ की
जहाँ से यात्रा।
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हस्ताक्षर
ऐसे हस्ताक्षर करो
अमिट बन जाए जो
___ समय के शिलालेखों पर । ऐसे हस्ताक्षर अर्थहीन
मिट जाए अगले पल जो
· बालू के टीलों पर। पानी पर खींच लकीरें
और कहते अमिट हमारे हस्ताक्षर !
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भूमा की उपेक्षा
हिसाब रख रत्ती - रत्ती का उसे बचाने के चक्कर में
गँवा दिया निधि का आनन्द, बचा - बचा कर बिन्दु - बिन्दु को खो डाला .
रत्नाकर - सिन्धु। समय तो बीत गया कंकड़ . पत्थर जुटाने में, भवन - निर्माण से पूर्व. समय मौत का शिकंजा बन गया ।
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सजगता
सूर्य पूर्व में उदित हुआ शुरू हो गई यात्रा
पश्चिम की ओर । जीवन
अत्यल्प है, शिकार बनने से पहले
____ अंधियारे के प्राप्त प्रकाश से मार्ग बना, मार्गफल पालें कहीं प्रायश्चित न मरना पड़े
सूर्यास्त होने पर अँधेरे में खोने पर ।
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अपराजित
यौवन का तूफान उत्तेजना की आन्धी
भयंकर रूप में । मैं पथिक हूँ
लेकिन मुझे खतरा नहीं, दौड़ता नहीं
बढ़ता हूँ एक -एक पग
समझ - समझ कर
सम्हल' - सम्हल कर । बवण्डर की बिदाई के बाद
दौडू' | घूमू चाहे जहाँ, चाहूँ जैसे ।
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मार्दव
प्रवाह
भयंकर से भयंकर
तीव्र से तीव्रतर धराशायी हो गये
मदभरे बड़े - बड़े वृक्ष
महासंघर्ष में। अस्तित्व बनाया रखा नदी के मध्य रही घास ने अपना
भीषण प्रवाह में भी
जीवन - संघर्ष में भी, पार हो गयी
नम्र घास निरापद रूप से
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विडम्बना
विचारों की भीड़ भरी आँखें
देख रही हैं
पंथों की अधिकता,
आचार की विभिन्नता। पथ-प्रदर्शक अन्धा है
अपेक्षा है
अभीष्ट यात्रा ।
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विज्ञान से भेंट
विज्ञान - युग स्वर्ण - युग कण - कण में मानव के मन - सागर में सागर है गागर में सिन्धु है बिन्दु में
ज्ञान है विज्ञान में । आदि से अर्वाचीन सुन्दर और समीचीन हरियाली बढ़ती खुशहाली
चारों और विज्ञान का प्रबल भोर भोग और योग विचारों का प्रयोग ।
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विज्ञान का जादू लघु से विश्व - कोश तक प्रभा से प्रभाकर तक विज्ञान की यादें बिखरी पड़ी हैं
अखिल विश्व में ।
विज्ञान और धर्म समीप आये विश्व - शान्ति के लिए दोस्तो निभाए ।
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सृष्टि का सन्त
नागरिकता का पालन विषमता का अन्त है वह सृष्टि का सन्त है।
परिशुद्ध नागरिक कहाँ चाहिये ?
क्यों, किधर चाहिये ? विजय-मंच की देहरी पर पहुँचने के लिए, युग को समस्या के हल के लिए,
संसार में शान्ति के लिए । आत्म - विजय
सच्ची विजय है समस्याओं का निराकरण धर्म है शान्ति जीवन का लक्ष्य है यही नागरिकता का रहस्य है।
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अपेक्षित है नागरिकता का आचरण
हम सब के लिए नगर के, प्रान्त के, राष्ट्र के, विश्व के
उद्धार के लिए संस्कार के लिए
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शहीदों के प्रति
शहीदों तुम्ही हो कोहनूर शिलालेख इतिहास के स्वर्णिम
पृष्ठ। दिदिगन्त व्यापी है
तुम्हारी आभा, विस्मरण कर रहा है
जिस क्षण से देश, दूषित हो रहा है
उस क्षण से परिवेश ।
કર
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वर्तमान और अतीत
मैं खड़ा था नील गगन के नीचे श्यामल धरती के ऊपर शहर की सड़क के किनारे, निरीक्षण कर रहा था समीक्षक - दृष्टि से
वर्तमान और अतीत की दूरी। सब कुछ बदल गया समय बहुत कुछ छल गया, आलिंगन रह गये; प्यार चला गया, वाणी में मृदुता;
स्नेह छला गया।
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परस्पर उपकार की भावना
संसृति की धरोहर __तोड़ रही साँसें यह निरुद्दश्य लम्बी भीड़
किस ओर दौड़ रही है ?
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भीड़ भरी आखें
भीड़ देखने जा रही उनकी आंखें अपनी ओर दष्टि नहीं . ओझल है भीड़ में अपनी आँखें देखेगा भी कौन, भला ! अपनी सुन्दर आँखों को। भीड़ भरी आँखों में।
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आदमी
आदमी बड़ा विचित्र
मनुष्यत्व भी
पशुत्व भी
हर आयाम से आप्लावित,
आक्रोश और आवेश से
घृणा और स्वार्थ से,
जब इसका बीभत्स रूप
आकस्मिक प्रगट होता है
तब पशुत्व भी इसके कृत्यों से
लज्जित होता हैं, रोता है ।
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सुखौटे
महावीर का अभिनिष्क्रमण दूर होता जा रहा है हमारी चेतना से, हमने कोढ़ युक्त देह पर ओढ़ रखे हैं रत्न - कम्बल मुखौटे ही हैं हमारा सम्बल । सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह नारों का है सम्बल आचरण में
छल ही छल हे महावीर !
हम कब होंगे निश्छल ?
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दीप जले
घर - घर दीप जले
ध्वंस हुआ
___कब - कब अंधियारा ? देवालय में दीप जले प्रतिदिन, प्रतिपल ही
नष्ट हुआ अज्ञान - तिमिर कब ?
टूटी कब मिथ्यात्व की कारा ? दीपावली में
___ हर मुडेर पर दीप जले; उससे भी कब
दूर हुआ जग का अँधियारा।
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कितनी विकसित,
कितनी सुन्दर है
भय है
सभ्यता
यह सभ्यता ?
रोक दो
कहीं निगल न जाए. हत्यारों के... अस्त्र-अजगर
युद्ध की विभीषिका
सभ्यता और संस्कृति के
जन्में - अजन्में शिशुओं को ।
शस्त्रों का आविष्कार
नरसंहार ।
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समय-सिन्धु में
समय - सिन्धु में डूब गया सब
शेष बची स्मृतियाँ, पाप - पंक को धो न सकेंगी
जल से पूरित नदियो ।
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अमर दीपावलियाँ
युगों से प्रज्वलित दीपावलियाँ अतीत की सुखद स्मृतियाँ साक्षी है इतिहास आदर्श स्थापित कर विजन से लौटे राम उनके स्वागत में जलाये दिव्य दीप जन्म - मृत्यु - बन्धनविमुक्त हुए महावीर निर्वाण की स्मृति में जलाये सुनहरे दीप ज्योति अपलक - अमन्द ।
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उपलब्धि की कला
मूढ़ मत समझो
ग्रामीणों को
शहरियों की तरह खाली कुए में डोल डालते रहें खींचते रहें वृद्ध हो जाये
बगैर कुछ पाये जो । जानते हैं ग्रामीण
उपलब्ध करना पानी को खोद कर और गहरा खाली कुंए को।
પર
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ममत्व
तैर आता है
मेरी आँखों में मस्तिष्क की तरंगों में
वह भिखारी कभी - कभी, झगड़ रहा था
सार्वजनिक सड़क के लिए
अपनी बताकर जो । उसी का है
सड़क का वह हिस्सा भीख मांगता
बैठकर वह जिस पर । लाभ उठाकर सार्वजनिकता का कर लिया एकाधिकार । सार्वजनिकता | सार्वजनीनता के साये में बोल रहा है एकजनीन एकाधिकार ।
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एक
एक
कर
आने के बाद
सद्गुणों के पन
उन्होंने बटोरे,
उद्यम का फल
हम पर छोड़ा;
आया जीवन में ज्वार
हमने उठा उन्हें
रद्दी की टोकरी में फेंका ।
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परिग्रह
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
परिग्रह की वृत्ति सुसंस्कारों की इति जीवन के हर अंश में
अंश के भी वंश में। अपेक्षित है
पैसा संसृति पर
दुर्दिन है कैसा ?
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तब और अब
तब
चीर - हरणकर्ता दुःशासन के प्रयत्न . हो गए थे निरर्थक कृष्ण रक्षा - कवच लोक - मंगल का प्रहरी।
अब
भक्षकों के साथ जुड़े रक्षक दिन के प्रकाश में द्रोपदियों का होता है चीर - हरण, कहाँ है शासन, कहाँ है शरण ?
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युग-विकृति
व्यभिचार,
कुचक्र, चोरी बन गयी मानव जाति की केन्द्रीय नीति हो रही है परिनिर्मित इससे भावी जीवन - पद्धति; आधुनिकता की विकृति
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आश्चर्य
महावीर के अनुयायी वणिक है आश्चर्य
स्वयं महावीर क्षत्रिय थे
दुर्लभ आत्म-तत्व की उपलब्धि के लिए उन्होंने अस्त्र - शस्त्र विसर्जित कर दिए ;
हम निर्जीव हाथों में
अस्त्र-शस्त्रों को थामे
अहिंसा के आवरण में कायरता को छिपाते हैं, और अनुयायी
महावीर के कहाते हैं ।
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ԱՇ
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दशा
कच्ची मिट्टी से बने झोंपड़ों में
जीवित कंकाल
मृत्यु के मुख में
झूलते इन्सान |
वह मनुष्यों का सदन नहीं
है विराट् कब्रिस्तान, जहाँ दफनाये जाते हैं जीवित इन्सान |
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खटऽ
न्याय के द्वार
खटऽ
खटखटाए
खटs
न्याय के द्वार,
पर न्याय कहाँ
अन्याय के शासन में ?
दुबकी बैठी है चेतना
कल्मष की कथरी ओढ़े,
स्वयम् मधुमास
बुला रहा है पतझर ।
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रक्त-पिपासु
रक्त को अमृत समझ
पी रहे हैं ये
मानवता के रक्त पिपासु
जोंकवत् ।
धकेल रहे हैं
विनाश की ज्वालामुखी में विकासोन्मुख विश्व को ।
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ज्योतिर्मुख
साहित्यकार धु तिकार देते हैं संसृति को प्रकाश खण्डहरों में छिपे वैभव को तेल में छिपी आभा को
जीवन पर्यन्त । बीत जाता है
ऐसे ही जीवन का बसन्त ।
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निष्प्राण साहित्य
अमुखरित है जिस साहित्य में साहित्यकार का
प्रकाशक व्यक्तित्व
बोलता जीवन । वह साहित्य,
साहित्य नहीं; मात्र है निर्जीव शब्दाक्षरों का समूह ।
आकर्षण प्राण का है शव का कभी नहीं !
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ऐसे होता है परिवर्तन
नीति का लोहा चित्त की भट्टी में चिन्तन की अग्नि में परितप्त कर संयोजनात्मक कदम बढ़ाकर पीटो, बुरी तरह पीटो परिमार्जन के हथोड़ों से स्वयं लोहार बन अन्धविश्वास, पुरानी परम्पराओं के रजकण, नव निर्माण के साँचे में ढाल दो उसे । उपस्थित होगा एक नया रूप, परिष्कृत संस्कृति का स्वरूप।
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विध्वस
इधर
विज्ञान का विकास
उधर
मानव का विनाश
कर्त्ता - भोक्ता
दोनों के सम्मुख
खड़ा है
विध्वंस का कगार
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युग-दर्पण
युग के दर्पण के
बिम्ब बहुत धुघले हैं, सब धृणा, द्वेष, मत्सर
के ही पुतले हैं ।
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पुनरंग की अपेक्षा
उड़ने लग गया है रुचिर रंग
विश्व के गोलार्द्ध का। अपरिहार्य है ___ दोबारा रंग करना, दौर्लभ्य है मगर - ऐसा कुशल कलाकार रंगेरा
जो पुनः रंग दे
सुनहरे रंगों से वैसा ही, जैसा पहले थाआकर्षक, प्रभावक ।
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परम्परा के प्रसंग
पुराने ढर्रे पर चल रहा है जीवन
ग्राम के निवासियों का
शहर के अछूतों का सदियों से
ग्राम्य चिपके हैं
बुरी तरह
रोजमर्रा के जीवन से परम्परा के बन्धन से ।
ग्राम्य इच्छुक नहीं ढ़ंग बदले,
रंग बदले
.
उनके रहन सहन का, रीति-रिवाजों का
-
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प्रेरित होकर नबीनता के आग्रह से,
विज्ञान के प्रभाव से । नहीं चाहते ग्राम्य खिल्ली उड़ाना पुरखों के आदर्शों को । नहीं चाहते कलंक के धब्बे लगाना. पुरखों के पद - चिह्नो पर ग्राम का जीवन क्या रूढ़ियों का धाम प्रगति का विराम ?
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पुरुषार्थ
क्यों करते हो किसी की जी - हज री,
इर्द - गिर्द चमचागिरी ? खानी चाहिये तुम्हें कमाई पसीने की। दो हाथ मिले हैं
श्रम करो वर्षा होगी
घर में सोने की।
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शिक्षा-प्रणाली
बना दिया और चौड़ा आधुनिक शिक्षा - प्रणाली ने ..
जीवन की खाइयों को, आदमी,
आदमी नहीं; मात्र है
सूचनाओं से भरा थैला।
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अपरिग्रह
संचित कर असीम धन क्यों हो उन्मन ? शोषित मनुजों का
श्राप है, अनीति से संचित धन
__ पाप है। कल से अपरिचय पीढ़ियों के लिए संचय; कर्म - तूलि निष्प्रभ नहीं है जब अशुभ कर्म उदय में आयेंगे, सम्पति के कीर्ति - कलश बिना गिराये ही गिर जायेंगे।
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पहरा
बोलना भी आज दुर्लभ,
मौन पर पहरा खड़ा है; प्रजातंत्र के द्वार पर
यह कौन-सा शत्रु खड़ा है ?
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ग्राम और रोटी
चिन्ता कहाँ ग्रामों को
मोती की ? विकराल है समस्या
रोटी की, शहरों ने छीन ली ___ रोटी और दृष्टि में है
लंगोटी।
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बीज में वृक्ष
बालक मुर्गी से बदतर कुरेद डाला बागवान द्वारा आरोपित
सुनहले बीज को रौंद डाला बीज में
वृक्ष के भविष्य को ।
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अवतार
जब - जब धर्म का होता ह्रास तब - तब ईश्वर लेते अवतार, स्रष्टा सृष्टि का निर्माण कर नशे की गोलियाँ खा
चैन से सो गये जब रखवाली ही नहीं करनी थी तो इतनी विषमताएँ क्यों बो गये?
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सताया है बुरी तरह अपनों ने,
क्या करें बात
उपेक्षा
परिताप दिये
परायों की ।
इस कदर
मित्र - दोस्तों ने
जाती रही शंसा
अन्तस्करण से
शिकायत करनी थी जो दुश्मनों की ।
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परिवर्तन
प्रतिपल जीवन का परिवर्तन प्रज्ञा का स्थानान्तरण चेतना का परित्याग धारण करते नया रूप एक दिशा से छोड़ा बदला मनुष्य का स्वभाव पहना मुखौटा, गिरगिट के समान ।
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विद्यालय
आज के द्रोणाचार्य को देते नहीं एकलव्य दिखाते हैं अंगूठा वर्तमान शिक्षा - प्रणाली उत्तम दम्भ बहुत झूठा।
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विकास-पथ
अपेक्षित हैं
विकासशील राष्ट्रों के प्रति सहयोग और समान अधिकार, मानव - मानव में, राष्ट्र - राष्ट्र में बंद हों विषमता के द्वार । यही है विश्व में
उन्नति का साधन, समस्याओं का समाधान फैल सकता है जिससे विश्व-बन्धुत्व का प्रकाश ।
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रोटी का प्रश्न
बड़ा जोशीला, बड़ा उत्साही बैठा झोंपड़ी में अध्ययनरत युवक दिन में संजोये सपने रात्रि में देखे
मैं कवि बनूंगा साहित्य संसार में तुलसी की तरह,
सेवा करूंगा मातृभूमि की शिवाजी की तरह,
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आविष्कार करूगा विज्ञान - लोक में न्यूटन की तरह ।
पर
क्या अन्त है
इन कल्पनाओं का! निराश हो जाता है बेचारा नवयुवक जब सम्मुख आता है
प्रश्न रोटी का।
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अनुत्तर उत्तर
उत्तर नहीं देता है
जब कोई
क्रोधित पुरुष को, तो यह मत समझो
वह अनुत्तर है एक अच्छा उतर है
कुछ उत्तर न देना भी। जरुरत है ऐसे ही उत्तर की क्रोधित मानुष को।
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एकता
काट सकता है एकाकी चूहा
लौह की तिजोरी को, भयभीत क्यों है
फिर बिल्ली से। करले एकता अगर
चूहे मिलकर सकन खाल खींच सकते हैं
बिल्ली तो क्या बाघ की भी।
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शंकालु दीमक
संशय - दीमक खोखला कर रहा जीवन - वृक्ष जड़ से, श्री - शून्य हो रहा फल से, जो प्रश्न आज से है वही है
कल से।
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माँ सरस्वती
सभ्यता और संस्कृति अग - जग को ज्योतिर्मय कर दे, संस्कार और चारित्र की सुवास से जीवन के आंगन को भर दे, श्रद्धा और मानवता से मस्तिष्क मनुज का उर्वर कर दे, हे सरस्वती, माँ जिनवाणी ऐसा वर दे।
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१६+८६ =१०२/मुनि चन्द्रप्रभ सागर : समय के हस्ताक्षर
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________________ MASTI MySR समय के A- 757 जय श्री प्रकाशन al education International For Personal & Private Use Only