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प्रज्ञापना
मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर जी हिन्दी के जाने-माने साहित्यकारों में से एक हैं । वस्तुतः उन्होंने जीवन की सकल स्पृहाओं का परित्याग कर साधनापथ अंगीकार करते हुए उन भूमिकाओं की सम्प्राप्ति की है, जो एक विचारक, कवि, लेखक और साधक की सहज साधना कही जा सकती है । युवा होते हुए भी उनके अनुभव और चिन्तन परिपक्व, परिष्कृत तथा प्रभावोत्पादक हैं । उनका साहित्य सर्जन किसी सम्प्रदाय - विशेष की परिधि में सीमित रह कर नहीं, प्रत्युत् समस्त मानव जाति के अभ्युदय को, विश्व बन्धुत्व तथा विश्व शान्ति की उदात्त भावना को सामने रखकर हुआ है ।
प्रस्तुत कृति मुनिश्री की काव्यगत कृतियों में एक है। इसमें उनकी दार्शनिक, धार्मिक तथा नैतिक विविध नई कविताएँ चयित की गई हैं, जिससे कृति सार्वभौमिक बन गई है। इसकी प्रत्येक कविता की भाषा-शैली अभिव्यंजना-शक्ति एवं भाव- गूढ़ता अनुपम, अनुत्तर, अद्वितीय है । ऐसी श्रेष्ठ कृति का प्रकाशन करते हुए हमें गौरव एवं प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक है ।
कृति के प्रेरणासूत्र - श्रद्ध ेय मुनिराज श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज, संयोजक - पूज्य मुनि श्री ललितप्रभ सागर जी म० और सम्पादक - भाई श्री मिश्रीलाल जी जैन के प्रति हम हार्दिक आभारी हैं, जिनके सहकार एवं सहयोग से कृति को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना सम्भव हो सका । अंत में, हम उदार हृदया श्रीमती कमलाबाई धर्मपत्नी श्रीमान् ज्ञानचन्द जी गोलेच्छा, जयपुर और श्रीयुत् शान्तिलाल व्रजलाल भाई कोठारी, पटना के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहेंगे, जिन्होंने इस पुस्तक की उपयोगिता समझकर एक साथ इसकी क्रमशः २०० तथा १०० प्रतियाँ क्रय कर हमारे प्रकाशनकार्य को प्रोत्साहन दिया ।
प्रस्तुत कृति पर विज्ञ समीक्षकों एवं सुधी पाठकों के मन्तव्यों तथा सुझावों का स्वागत है ।
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