Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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অয়ালিকা भयुधम्युक्तियुनिजे रुबीनामुत्सबो महान् । गुणाः किं न मुवर्णस्य व्यज्यन्ते निकोपळे ॥२८॥ भवकापि स्वयं लोक काम कात्यपरीक्षकः । रसमाकानभिशाप भोना वेसिन कि रसम् ॥२९॥ स्या वस्तुः श्रमः सो निर्विचारे नीचरे । प्राज्यभोग्यविधिः कः स्यातणस्वादिनि देहिनि ॥३०॥ या पार्थिवस्वसामान्यामागियारमसमागमः । पार्थिदः पार्थिवो ननं वृथा तत्र कः श्रमः ॥३१॥ अहलावहिरो गपयाः प्राणान्यपरिमहात् । स्वयं विचारशून्यो हि प्रसिदया रज्यते जनः ॥३२॥ यः स्वयं करते नैव यशोतो मूढधीश्वरः । मरणादपि दुःखाय कापकीर्तिस्तयोः पुरः ॥३३॥ असारं भवेद्रस्न बहिः कात्रं च कुन्धरम् । यथा तथा करेः काव्यमको विभाज्यताम् ॥३४॥
निःसार पदार्थस्य प्रायगारम्परो महान् । न हि स्वर्गे निस्तारसे याक् प्रजायते ॥३५॥ मात्र से प्रेमी के हृदय में प्रेम उत्पन्न नहीं करती जय तक कि वे उक्त दोनों गुणों से विभूषित नहीं होती। ॥२७ ।। विद्वान् न होनेपर भी काव्यरचना की युक्ति में निपुणता प्राप्त किये हुए कवि से भी विद्वानों को विशेष आनन्द प्राप्त होता है। क्योंकि क्या कसोटी के पत्थर पर सुवर्ण के गुण (पीवत्वादि) प्रकट नहीं किये जाते ? अवश्य प्रकट किये जाते है । जिसप्रकार शकर की पाक विधि से अपरिचत होने पर भी उसका आस्वाइन करनेवाला मानव क्या उसके मधुर रस को नहीं जानता? अवश्य जानता है। उसीप्रकार जनसाधारण स्वयं कवि न होने पर भी कवि की कृतियों-काव्यों को सुनता हुआ उनके गुण दोष का जाननेवाला होता है ।। २९ ।।
जिसप्रकार घास खानेवाले पशु के लिए अधिक घीवाले भोजन का विधान निरर्थक है उसीप्रकार विचार-शून्य-मूर्ख-राजा के उद्देश्य से कचिद्वारा किया हुआ समस्त काव्यरचना का प्रयास व्यर्थ है ॥३०॥ पृथिवीस्वधर्म की समानता समझकर माणिक्य और पाषाण के विषय में समान सिद्धान्त रखनेवाला-रत्न और पत्थर को एकसा समझनेवाला ( मूर्ख)-राजा निश्चय से मिट्टी का पुतला ही है अतः उसके लिए कवि को काव्यकला का प्रयास करना निरर्थक ही है." ।। ३१॥ लोक में कवि की रचनाएँ प्रायः करके विद्वानों द्वारा स्वीकार की जाने पर जब प्रसिद्धि प्राप्त कर लना है, तभी वे जनसाधारण द्वारा उस प्रकार माननीय हो जाती है-अमुक कब का कृति विहन्नन पड़ते हैं, अतः वह अवश्य सर्वश्रेष्ठ होगी-जिसप्रकार स्त्री प्रायः करके राजा द्वारा पाणिग्रह न की जाने पर ख्याति प्राप्त कर लेने से सर्वसाधारण द्वारा माननीय समझी जाती है-अमुक श्री राजा साहब की रानी हूँ : इसलिए. यह अवश्य अनोखी व विशेप सुन्दरी होगी। क्योंकि निश्चय से जन-समूह विवेकहीन होने के कारण प्रसिद्धि का आश्रय लेकर किसी वस्तु से प्रेम प्रकट करता है ॥३२॥ जो म्बयं नवीन कायरचना नहीं करता एवं जो दूसरे कवियों के काव्य नहीं पढ़तामूर्ख है-ऐसे दोनों मनुश्यों के सामने काव्य की प्रशंसा करना मरण से भी अधिक कष्टदायक है। विशेषार्य–विसप्रकार अन्य के सामने नृत्य कलाका प्रदर्शन, बहिरे को कर्णामृतप्राय मधुर संगीत सुनाना एवं सखी नदी में सरना कष्टदायक है उसी प्रकार काव्यरचना व काव्यशाख से अनभिज्ञ-मुखें- के समक्ष काव्य की प्रशंसा करना भी विशेष कष्टदायक है ।। ३३ ।। जिसप्रकार रत्न भीतर से श्रेष्ठ (बहुमूल्य) और काच बाहिर से मनोहर होता है उसीप्रकार क्रमशः सुकावे व कुकाये की रचनाओं में समझना चाहिए ॥३४॥
तुच्छ वस्तु में प्रायः करके विशेष प्राडम्बर पाया जाता है। उदाहरणार्थ-जैसी ध्वनि काँसे में होती है, वैसी सुवर्ण में नहीं होती ।। ३५ || काव्यशान्त्रों की परीक्षाओं में उन सज्जनपुरुषों को ही साक्षी
५-पमालंकार । २- आपालंकार। -क्तिनाम. आक्षेपालंकार। ४-साक्षेपालबार । ५पसंहार । -अर्थान्तरन्यासालंकार । -माति-अलंकार । ८-उपमालंकार। -ष्टान्तालंकार ।
LAATTA