Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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पहली बात यातो विशेषण गलत है, या ऐसा कोई भगवान नहीं है । दूसरी बात अगर है तो वह निर्दयी या कंजूस है जिससे कि सर्वशक्ति के रहते शक्ति का सदुपयोग नहीं
करता ।
सोलहवें श्री नमिप्रभु स्वामी के स्तवन में श्रीमान् ने नवतन्त्रों का विवेचन - कर्मवाद का स्वरूप और परमात्मा पद की विशेषता बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त की है ।
सतरहवें श्री वीरसेन भगवान के स्तवन मे श्रीमान् ने ध्याता ध्यान और ध्येय की विशिष्टता बताने में कमाल कर दिया है ।
अठारहवें श्री महाद्र भगवान् के स्तवन में भगवान के अध्यात्मिक साम्राज्य का वर्णन रूपकों में किया है । जिसमें क्षायिक अनत वीर्य शक्ति अव्याबाध- समाधि कोश - स्वजाना, गुण सपति से हरे भरे असंख्यात प्रदेश, चारित्र रूप किला, क्षमादिक धर्म-गुणों का सैन्यबल, आचाब उपाध्याय, साधु श्रावक आदि अधिकारी, सम्यग्दृष्टि जीवरूप प्रजा को बताने में श्रीमान् ने अपना ललित-कौशल व्यक्त किया है ।
उन्नीसवें श्री देवजसा भगवान के स्तवन में प्रभु दर्शन की लालसा, प्रभु के प्रति अनन्य प्रेमानुराग, व्यक्त करते हुए अपनी दशा का विचार और सम्यग्दृष्टि देवताओं से प्राथना बड़े मार्मिक भावों में की है - जैसे