Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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प्राक
प्राकृत-कथासाहित्य में वसुदेवहिण्डी' का स्थान स्पष्टीकरण के लिए कथाओं को माध्यम बनाया गया है। तीर्थंकरों, गणधरों और अन्यान्य आचार्यों ने कथा की शक्ति को पहचाना था, इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए कथा को सर्वाधिक महत्त्व दिया। __प्राकृत-निबद्ध अंग और उपांग-साहित्य में प्राप्त, आर्हत सिद्धान्तों को अभिव्यक्ति देनेवाले आख्यान प्रेरक और प्रांजल तो हैं ही, अन्तर्निगूढ संवेदनशील भावनाओं के समुद्भावक और सम्पोषक भी हैं। आगमकालीन इन आख्यानों का उद्देश्य है-मिथ्यात्व से उपहत अधोगामिनी मानवता को नैतिक और आध्यात्मिक उदात्तता की ऊर्ध्वभूमि पर प्रतिष्ठापित करना । आगमकाल प्राकृत-कथासाहित्य का आदिकाल या संक्रमण-काल था। इस अवधि में नीति और सिद्धान्तपरक प्राकृत-कथाएँ क्रमशः साहित्यिक कथाओं के रूप में संक्रमित हो रही थीं, अर्थात् उनमें सपाटबयानी के अतिरिक्त साहित्य-बोध की अन्तरंग सजगता और रसात्मक अभिव्यक्ति की आकुलता का संक्रमण हो रहा था। अर्हतों की उपदेश-वाणी की तीक्ष्णता और रूक्षता को या उसकी कड़वाहट को प्रपानक रस के रूप में परिणत कर अभिव्यक्त करने की चिन्ता प्रथमानुयोग के युग में रूपायित हुई और साहित्य की सरसता से सिक्त होने का अवसर मिल जाने से गुरुसम्मित वाणी जैसी
थाएँ कान्तासम्मित वाणी में परिवर्तित होकर ततोऽधिक व्यापक और प्रभावक बन गईं और इस प्रकार, संकलन की प्रवृत्ति सर्जनावृत्ति में परिणत हुई। विषय-निरूपण की सशक्तता के लिए सपाट कथाओं में अनेक घटनाओं और वृत्तान्तों का संयोजन किया गया, उनमें मानव की जिजीविषा और संघर्ष के आघात-प्रत्याघात एवं प्रगति की अदम्य आन्तरिक आकांक्षाओं के उत्थान-पतन का समावेश किया गया; इसके अतिरिक्त उनमें सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में विकृतियाँ उत्पन्न करनेवाली परिस्थितियाँ चित्रित हुईं और उनपर विजय-प्राप्ति के उपाय भी निर्दिष्ट हुए। पाण्डित्य के साथ-साथ सौन्दर्योन्मेष, रसोच्छल भावावेग, प्रेम-विह्वलता और लालित्य की भी प्राणप्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार, प्राकृत-कथाएँ पुनर्मूल्यांकित होकर आख्यान-साहित्य के समारम्भ का मूलकल्प बनीं और उनका लक्ष्य हुआ कर्ममल से मानव की मुक्ति और जीवन की उदात्तता के बलपर ईश्वरत्व में उसकी चरम परिणति या मोक्ष की उपलब्धि।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि प्राकृत-कथासाहित्य की मूलधारा आगमिक कथाओं से उद्गत होकर समकालीन विभिन्न प्राकृतेतर कथाओं को सिंचित-समेकित करती हुई पन्द्रहवीं-सोलहवीं शती तक अखण्ड रूप से प्रवाहित होती रही। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने उचित ही लिखा है कि आगम-साहित्य प्राकृत-कथासाहित्य की गंगोत्तरी है। ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा आदि अंग तथा राजप्रश्नीय, कल्पिका, कल्पावतंसिका आदि उपांग प्राकृत-कथा-साहित्य के सुमेरुशिखर हैं।
___ उपर्युक्त ऊहापोह से यह निष्कर्ष स्थापित होता है कि प्राकृत-साहित्य की विभिन्न विधाओं में कथा-साहित्य का ऊर्जस्वल महत्त्व हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि प्राकृत-कथासाहित्य ने प्राकृत-काव्यों को अपदस्थ किया है। इसलिए कि कथा-साहित्य में यथार्थता का जो सातत्य है, उसका निर्वाह काव्य-साहित्य में प्रायः कम पाया जाता है। हालाँकि, अस्वाभाविक आकस्मिकता
और अतिनाटकीयता से प्राचीन प्राकृत-कथासाहित्य भी मुक्त नहीं है। युगीनता के अनुकूल कथा-साहित्य के शिल्प और प्रवृत्ति में अन्तर अस्वाभाविक नहीं। घटनाओं और चरित्रों के समानान्तर विकास का विनियोग प्राकृत-कथाकार अच्छी तरह जानते थे। चेतना की समरसता