Book Title: Vairagya Shatakadi Granth Panchakam
Author(s): Kesharmuni
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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क
गतं ?, त्वमपि कुत आगतः कुत्र गमिष्यसीति 'अन्योऽन्यमपि' परस्परमपि युवां 'न जानीथे' न बुध्येथे, यत उक्तं श्रीआचाराङ्गे [शस्त्रपरिज्ञाऽध्ययने प्रथमोद्देशके ] "इह मेगेसिं णो सन्ना भवति, तं जहा-पुरच्छिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहो दिसाओ वा आगओ अहमंसि, अन्नयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि । एवमेगेसिंणो नातं भवति-अस्थि मे आया उववाइए, णस्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी? केवा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ?, से जं पुण जाणेज्जा सहसंमदियाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सोचा" इत्यादि, अतस्तव कुतः कुटुम्बं ?, परस्परमपि गमनागमनाद्यनवगमात् ॥ ३१॥
खणभंगुरे सरीरे, मणुयभवे अब्भपडलसारिच्छे। सारं इत्तियमेत्तं, कीरइ सोहणो धम्मो ॥ ३२ ॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! 'शरीरे' देहे क्षणभङ्गरे' क्षणं क्षणं विशरारुणि, तथा मनुष्यभवे 'अभ्रपटलसदृक्षे' मेघसमूह-17 समाने, वायुना शीघ्रमेव यथाऽभ्रवृन्दं विनश्यति तथाऽयं मनुष्यभवोऽपि देवभवाद्यपेक्षया अल्पकालावस्थायी, अतोऽत्र 8 'एतावन्मात्र मियत्प्रमाणमेव 'सारं' न्याय्यं-न्यायोपपेतं-युक्तमित्यर्थः, यत् 'शोभनः' पञ्चाश्रवाद्विरतिरूपो 'धर्मो' जिनप्रणीतः क्रियते, "सारं तु द्रविणन्याय्यवारिपु” इत्यनेकार्थः ॥ ३२॥
जम्मवृक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो! दक्खोह संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो॥ ३३ ॥
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