Book Title: Vairagya Shatakadi Granth Panchakam
Author(s): Kesharmuni
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 97
________________ SESUAISSISSISSES परिब्भमंतेण कह कह वि ॥ ३८॥ जीवेन लभ्यत इयं, मनुजगतिः सन्मणीखनीतुल्या। तत्थ वि दुलहो चिंतामणिव जिणदेसिओ धम्मो ॥ ३९ ॥ पशुपालोऽत्र यथा खलु, मणिं न लेभेऽनुपातसुकृतधनः । जह पुण्णवित्तजुत्तो, वणिपुत्तो पुण तयं पत्तो ॥ ४०॥ तद्वद्गतगुणविभवो, जीवो लभते न धर्मरत्नमिदम् । अविकलनिम्मलगुणगण-विहवभरो पावइ तयं तु ॥४१॥ (श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्तौ श्रीदेवेन्द्रसूरिकृतायां)॥९५॥ | जह दिट्ठीसंजोगो, न होइ जचंधयाण जीवाणं । तह जिणमयसंजोगो, न होइ मिच्छंधजीवाणं ॥९६॥ । व्याख्या-यथा 'जात्यन्धानां' आजन्मतोऽन्धीभूतानां 'जीवानां' प्राणिनां 'दृष्टिसंयोग'श्चक्षुस्सम्बन्धो न भवति, तथा 'मिथ्यात्वेन' कुवासनया 'अन्धा' विवेकविकला ये जीवास्तेषां 'जिनमतस्य' श्रीजिनशासनस्य 'संयोगः' प्राप्तिर्न भवति ॥१६॥ पच्चक्खमणंतगुणा, जिर्णिदधम्मे न दोसलेसोऽवि। तहवि हु अन्नाणंऽधा, न रमंति कयावि तम्मि जिया ॥९७॥ __ व्याख्या-श्रीजिनेन्द्रधर्मे 'प्रत्यक्षं साक्षादनन्तगुणा इहलोके यशःप्रभृतिप्राप्तिः परलोके च स्वर्गमोक्षसौख्यावाप्तिः, नाऽस्मिन् दोषाणां-अयशम्प्रभृतीनां 'लेशोऽपि' लवोऽपि, तथापि 'हु निश्चये 'अज्ञानेन' यथावत्स्वरूपानवबोधेन, अन्धा जीवाः कदाऽपि तस्मिन्' जिनेन्द्रधर्मे 'न रमन्त एवं' न धृति बनन्त्येव, अज्ञानित्वादेव ॥ ९७ ॥ हामिच्छे अणंतदोसा, पयडादीसंति नवि य गुणलेसो। तहवि य तं चेव जिया, ही!! मोहंधा निसेवंति ॥९८॥ - व्याख्या-'मिथ्यात्वे' कुगुरुकुदेवकुधर्माङ्गीकाररूपाध्यवसाये अनन्तदोषा नरकपातादयः 'प्रकटाः' स्पष्टा दृश्यन्ते, CAUTARIOS DE CASAISIAIS Jain Educati onal For Private & Personal use only jainelibrary.org

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