Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ श्रावकाचार सम्बधी उपलब्ध जैन साहित्य का अनुशीलन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन मनीषियों ने श्रावक को एक विशिष्ट सदाचारी, सद्गृहस्थ के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वह ज्ञानी भी है और आचारवान भी। ज्ञान, विश्वास-आस्था और सदाचार- इन तीनों का समन्वय श्रावक जीवन में किया गया है। जो अपने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार जीवन को अधिकाधिक मर्यादाशील और अनुशासित रखता है उसे ही श्रावक की भूमिका पर खड़ा किया है। भगवान महावीर से लेकर उत्तरवर्ती सैकड़ों आचार्यों एवं मनीषियों ने लगभग 2500 वर्ष के चिंतन काल में जैन श्रावक की यही छवि प्रस्तुत की है। वह कर्त्तव्य, अनुशासन एवं संयमयुक्त जीवन जीने वाला सदाचारी नागरिक रहे। जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषी आचार्यों ने श्रावक धर्म और श्रमण धर्म ग्रहण करने के पूर्व मानवता के दिव्य गुणों को धारण करना आवश्यक माना है। सामान्य जीवन से विशिष्ट मानव बनने के लिए आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम मार्गानुसारी के दिव्य गुणों को अपनाये। आगम व आगमेत्तर साहित्य का गम्भीर अध्ययन कर सर्वप्रथम धर्म बिन्दु प्रकरण ग्रन्थ में मार्गानुसारी के पैंतीस बोल पर आचार्य हरिभद्र ने चिंतन प्रस्तुत किया। उसके पश्चात् अनेक आचार्यों ने अपनी कमनीय कल्पना से उन गुणों पर अधिक विस्तार से प्रकाश डाला। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में उन गुणों पर अत्यन्त गहराई से भाष्य प्रस्तुत किया । यह पैंतीस गुण जीवन के लिए इतने अधिक उपयोगी हैं कि मानव जीवन में सद्गुणों का बगीचा लहलहाने लगता है। यह गुण मनुष्य को तन से ही नहीं, मन से ही मानव बनाने में पूर्ण सक्षम हैं। व्रत की परिभाषा में बताया गया है कि सेवनीय विषयों का संकल्प पूर्वक या नियम रूप में त्याग करना, हिंसा आदि निन्द्य कार्यों को छोड़ना अथवा पात्रता आदि प्रशस्त कार्यों में प्रवृत्त होना व्रत है। जिस प्रकार सतत प्रगतिशील प्रवाहित होने वाली सरिता के प्रवाह को नियंत्रित रहने के लिए दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियंत्रित और मर्यादित बनाये रखने के लिए व्रतों की आवश्यकता होती है। जैसे तटों के अभाव में नदी का प्रवाह छिन्न भिन्न हो जाता है उसी प्रकार व्रतविहिन मनुष्य की जीवन-शक्ति छिन्न भिन्न हो जाती है, अतः जीवन शक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा में ही उसका उपयोग करने के लिए व्रतों की अत्यन्त आवश्यकता है। श्रावक के द्वादश व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गई है। वस्तुतः इन व्रतों का मूलाधार अहिंसा है। अहिंसा से ही मानव का विकास और उत्थान होता है। यही संस्कृति की आत्मा है और आध्यात्मिक जीवन की नींव है। 4 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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