Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ 74 श्रावकाचार गुण, लक्षण और अणुव्रत (दिनांक 30-31 अक्टूबर को सूरत में आयोजित गोष्ठी में प्रस्तुत आलेख की रूपरेखा ।) इससे पूर्व कि हम श्रावक के आचार पर चर्चा करेंश्रावक शब्द के अर्थ भाव को समझ लें। श्रावक शब्द को श्रम के साथ जोड़ा गया है। इसके संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जब वैदिक संस्कृति में भाग्य की प्रधानता हुई, वर्गभेद पनपा उस समय यह वर्ग जो श्रम को महत्त्व देता था, जो भाग्य के स्थान पर पुरुषार्थ का पक्षधर था- वही श्रावक कहलाया । इस शब्द के साथ पुरुषार्थ जुड़ा है जो इस तथ्य का द्योतक है कि हम जैसा और जितना कर्म करेंगे वैसा और उतना ही परिणाम प्राप्त होगा। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि " विवेकवान, विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं ।...... ....." शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा से क्रम पूर्वक उठता चला जाता है। अंतिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित न्यून रहता है । गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है । Jain Education International - डॉ. शेखरचन्द्र जैन - सर्वार्थसिद्धि, सागार धर्मामृत जैसे ग्रन्थों में कहा गया है कि पंच परमेष्ठी का भक्त प्रधानता से दान और पूजन करने वाला, भेद ज्ञान रूपी अमृत पीने का इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तम गुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है। अंतरंग में रागादिक की क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रकट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है, स्वरूप जिनों का होना ही ऐसे और बहिरंग में त्रस्त आदिक पांचों पापों से विधिपूर्वक निवृत्ति होना है । स्वरूप जिन्हों का ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शनीक आदि स्थानों, दर्जों में मुनिव्रत का इच्छुक For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 129 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122