Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 88
________________ उत्तरगुण कहलाते हैं । गुण कहते हैं संयम के भेदों को । जो संयम के भेद प्रथम पाले जाते हैं वे मूलगुण हैं। मूलगुण में परिपक्व होने पर ही उत्तर गुण धारण किये जाते हैं। किसी लौकिक फल की अपेक्षा न करके निराकुलतापूर्वक धारण करने का नाम निष्ठा रखना है तथा अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठी के चरण ही उसके शरण्य होते हैं अर्थात् उसकी यह अटल श्रद्धा होती है कि मेरी सब प्रकार की पीड़ा पंचपरमेष्ठी के चरणों के प्रसाद से दूर हो सकती है, अतः वे ही मेरे आत्मसमर्पण के योग्य हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनपूर्वक देश - संयम को धारण करने वाले श्रावक का कर्तव्य आचार है । चार प्रकार का दान और पांच प्रकार की जिनपूजा कही है। यद्यपि श्रावक का कर्तव्य आजीविका भी है किन्तु वह तो गौण है। श्रावक धर्म की दृष्टि से प्रधान आचार दान और पूजा है। श्रावक धर्म की दृष्टि से प्रधान आचार दान और पूजा है यह बतलाने के लिए प्रधान पद रखा है तथा ज्ञानामृत का पान करने के लिए वह सदा अभिलाषी रहता है। यह ज्ञानामृत है स्व और पर का भेद - ज्ञान रूपी अमृत। उसी से उसकी ज्ञान-पिपासा शान्त होती है । श्रावकों के भेद श्रावकों के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये 12 व्रत तथा ग्यारह प्रतिमायें प्राचीनकाल से ही निर्धारित हैं । सागारधर्मामृत में श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद करके ग्यारह भेदों को नैष्ठिक श्रावक का भेद बतलाया है । जिनको जैनधर्म का पक्ष होता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक को श्रावक धर्म का प्रारम्भिक कहना चाहिए। जो उसमें अभ्यस्त हो जाता है वह नैष्ठिक है, यह मध्यम अवस्था है और जो आत्मध्यान में तत्पर होकर समाधिमरण का साधन करता है, वह साधक है, यह परिपूर्ण अवस्था है। रात्रि भोजन विरति विमर्श जैनाचार में अहिंसा के परिपालन में रात्रि भोजन त्याग पर भी विचार किया गया है। मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रि भोजन वर्जित माना है। मूलाचार में "तेसिं चेव वदाणां रक्खटुं रादि भोयण विरत्ती " लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पांच व्रतों की रक्षा के निमित्त 'रात्रिभोजन विरमण' का पालन किया जाना चाहिए। सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में लिखा है अग्गं वणिएहि आहियं, धारती रायाणया इहं । एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥ 3,57 अर्थात् व्यापारियों द्वारा लाए गए श्रेष्ठ (रत्न, आभूषण आदि) को राजा लोग धारण करते हैं, वैसे ही रात्रि भोजन विरमण सहित पांच महाव्रत परम बताये गये हैं, उन्हें तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 83 www.jainelibrary.org

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