Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ इच्छुक होते हैं। इस सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में हमें चाहे भोजन के लिए हो, चाहे घर सजाने के लिए हो, चाहे मौज-शौक के लिए हो, ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें प्राणी हिंसा होती हो। इतना ही नहीं एकेन्द्रिय वनस्पति आदि जीवों की रक्षा करनी चाहिए। यहां मात्र हिंसा का ही प्रश्न नहीं है अपितु पर्यावरण की रक्षा का भी प्रश्न है । यदि हम वृक्षों का उच्छेद न करें, पानी आदि का दुरुपयोग न करें, प्राणियों का वध न करें, अनावश्यक भूमि का उच्छेदन न करें तो पर्यावरण की रक्षा होगी और इससे मानव जीवन सुखी व स्वस्थ रह सकेगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्व ने इसको स्वीकार किया है परंतु हम इसे मानव मात्र का कर्तव्य या धर्म बनायें तभी हम श्रावक के सच्चे दृष्टिकोण को प्रस्तुत कर सकेंगे । 1 पूज्य आचार्य तुलसीजी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से यह शंखनाद किया था कि प्रत्येक गृहस्थ श्रावक को जीवन के नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए । यदि ऐसा न हो तो विश्व में अराजकता बढ़ जायेगी और मानव-मानव के बीच हिंसात्मक युद्ध फैल जायेगा । वे तो स्पष्ट मानते थे कि हमारे मन से जब तक कलुषता नहीं निकलेगी तब तक हमारे मन में प्रेम, दया, करुणा, क्षमा के भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते। और इन भावों के जन्म के लिए हमारे आहार और व्यवहार में अहिंसा आदि गुण होने चाहिए। क्योंकि हम जैसा अन्न खायेंगे वैसा ही मन बनेगा । इस दृष्टि से भी शाकाहार आवश्यक भोजन माना गया है। ऐसे भोजन से हिंसात्मक भाव नहीं जन्मते हैं और जीवहिंसा से बचा जा सकता है। जब हम आहार में शाकाहारी होते हैं तब विचारों में भी शान्त और उत्तम विचारों के धारक बनते हैं। यह भाव ही हमें भावहिंसा से बचाते हैं। यह भाव अहिंसा ही सच्ची अहिंसा है। हम अपने विचारों में भी किसी भी प्राणी के प्रति हिंसक न बनें, उसका बुरा न हो, ऐसे आर्त और रौद्र ध्यान से बचें। यह भाव हिंसा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है । जब हमारे अंदर दूसरों के प्रति भावों में हिंसा नहीं होगी तब हम परस्पर प्रेम के व्यापार को वृद्धिंगत कर सकेंगे । जब भावों में अहिंसा होगी तभी वाणी में सत्य होगा । हम हित, मित, प्रिय वचन बोलेंगे तो स्वयं को भी आनंद आयेगा और दूसरों को भी हम आनंद प्रसन्नता प्रदान कर सकेंगे। सत्य को यथावत् रखते हुए हम दूसरों को उससे अवगत करायें। अपने स्वार्थ के लिए हम झूठ न बोलें, यह इसका प्रयोजन है। आचार्य तुलसी जब अचौर्य अणुव्रत की बात करते हैं तब वे मानो स्पष्ट मानते हैं कि मात्र किसी के घर से चोरी कर लेना ही चोरी नहीं है अपितु अपने स्वार्थ के लिए सरकार के कर आदि का चुराना, व्यापार में नफा हेतु कम तौलना, मिलावट करना, छिपा तुलसी प्रज्ञा अंक 129 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122