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लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है वह ऋषियों से अधिक पवित्र है। सागार धर्मामृत में श्रावक के योग्य कार्यों में निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया गया है:- न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित-मित और प्रिय वक्ता, त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री- गांव और मकान सहित लज्जावान शास्त्र के अनुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान और पापों से डरने वाला व्यक्ति गृहस्थ धर्म को पालन कर सकता है।
दिगम्बर जैन परंपरा में गृहस्थ की 11 प्रतिमाओं का अर्थात् ग्यारह उत्तरोत्तर वृद्धि की श्रेणीयों का उल्लेख अनेक ग्रंथों में किया गया है। (धवला, वसुनंदि श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, चारित्रसार, सागारधर्मामृत आदि)
जैसा कि हम जानते हैं कि पंचव्रतों का अणु या एक देश पालन करना गृहस्थ का या श्रावक का प्रथम कर्तव्य है। और इसलिए गृहस्थ या श्रावक अपने आचरण में हिंसा का पालन करते हुए आजीविका आदि के लिए असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि कार्य करते हुए उससे जो हिंसा होती है वह आवश्यक होती है। बस ध्यान यही रखना है कि आवश्यकता से अधिक प्रमादवश कोई हिंसा न हो।
श्रावक की दिनचर्या का स्पष्ट उल्लेख करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि पाक्षिक श्रावक ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नमस्कार मंत्र को पढ़ते हुए यह सोचे कि मैं कौन हूँ, मेरा धर्म कौन है, मेरा व्रत क्या है? श्रावक के अतिदुर्लभ धर्म में उसकी भावना हो। स्नानादि के पश्चात् अष्ट प्रकार अहँत भगवान की पूजा तथा वंदनादि कृति कर्म करे, ईर्ष्या समिति से, अत्यंत उत्साह से जिनालय में नि:सही शब्द के उच्चारण के साथ प्रवेश करे। जिनालय को समोवशरण के रूप में ग्रहण करे। देव, शास्त्र, गुरु की विधिवत् पूजा करे, स्वाध्याय करे, दान करे और मुनिव्रत को धारण करने की अभिलाषा पूर्वक भोजन करे, दोपहर में अर्हन्त प्रभु की आराधना करे, तत्त्वचर्चा करे और संध्या को भावपूजा करते हुए पूजा करे। निंद्रा टूटने पर वैराग्यभावना भावे, विषयों की अनिष्टता पर विचार करे, आदर्श श्रावकों की प्रशंसा करे। श्रावक को जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है अष्टमूलगुण का धारी और पंचव्रतों का धारक होना चाहिए। इनके अंतर्गत रात्रि भोजन और पानी छानकर पीने का स्वयं समावेश हो जाता है। इसी प्रकार उसे सप्त व्यसनों का भी त्याग करना चाहिए। अर्थात् द्यूत, वेश्यागमन आदि का भी त्याग करना चाहिए।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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