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हों तो फौरन धो लो, वह महत्त्वपूर्ण है। आटा लिया, तो डिब्बे को साफ कर दो, फिर हाथ धोकर दूसरे काम में लगो। क्यों? लेते समय जो आटा डिब्बे को लग जाता है उसे खाने के लिए जो कीट कीटाणु पैदा हो सकते हैं, उन्हें खाने के लिए कोई वस्तु छोड़ों ही क्यों इतनी सारी चीजें हैं, या न भी हों, उन्हें हम इस्तेमाल करते हैं। हर दिन उपयोग में लाते हैं, तो उनका सफाई से उपयोग करना जरूरी होता है। भले ही हम अपने घरों में स्प्रे (छिड़काव) करें लेकिन उससे कीट या कीटाणु मरते नहीं हैं, किन्तु हमारा लक्ष्य यह होता है कि वे मर जायें, यही भावना हिंसा है। अतः हमें विशेष कर नारियों को यह प्रयत्न करना होगा कि वे इतनी सफाई रसोई, घर आदि में रखें कि कीटाणु पैदा ही न हों। अतः श्रावकाचार की संस्कृति रक्षात्मक है, उपचारात्मक नहीं। कुछ होने के बाद ईलाज करो, यह ठीक नहीं है, उससे अच्छा है कि कोई रोग या समस्या होने ही न दी जायें। इसमें नारियों की विशेष भूमिका हो सकती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा :
नारियों के लिए दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे जैन धर्म तथा श्रावकाचार के नियमों की पालना तथा आहार सम्बन्धी जीवन पद्धति के वैज्ञानिक पक्ष से पूरी तरह परिचित हों। आज केवल सिद्धान्त की जानकारी ही जरूरी नहीं है, अपितु उस सिद्धान्त को अथवा वैज्ञानिक तथ्य को व्यवहार में कैसे लाया जाये, इसकी भी पूरी जानकारी महिलाओं को होनी चाहिये। तभी शाकाहार एवं सात्विक जीवन पद्धति के महत्त्व को नई पीढ़ी को समझाया जा सकेगा। इस बात में पूरी सच्चाई है कि जहां चौके की शुद्धि होती, जिस घर में चौका पवित्र होगा उस घर का जीवन और परिवार के सदस्यों का आचरण सहज रूप से पवित्र और श्रावकाचार के अनुरूप होगा। अतः हमें धर्म को जीवन से जोड़ना होगा। धर्म और आचरण दोनों में अन्तर नहीं होना चाहिये तभी आने वाली पीढ़ी सुसंस्कारित होगी। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति नारी या पुरुष अपने चलने, बोलने, उठने, बैठने, खाने-पीने, सोने आदि की सभी क्रियाओं को सावधानी पूर्वक करता है वह सदाचारी श्रावक अथवा श्राविका बन सकता है। श्रावकाचार के पालन से ही जीवन सार्थक, सफल हो सकता है।
29, विद्याविहार कॉलोनी उत्तरी सुन्दरवास, उदयपुर - 313001
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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