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या न मरे, किन्तु प्रमाद के योग के अभाव में हिंसा हो जाने पर भी हिंसा नहीं मानी जाती। जैनाचार्यों के इस मत से स्पष्ट होता है कि यदि व्यक्ति यत्नाचारी है, सावधान है, कषाय रहित है, इसके बावजूद भी उसके द्वारा किसी के प्राणों का घात हो जाये तो उसे हिंसक नहीं माना जाता। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति अयत्नाचारी है, असावधान है, क्रोधादि कषाय सहित है, तो दूसरों के प्राणों का घात नहीं होने पर भी उसे हिंसा के दोष से मुक्त नहीं माना जा सकता है। जो देखभाल कर चलता है, उसके पैरों तले कोई जीव भी मर जाये, तो भी वह अहिंसक है क्योंकि वह अप्रमादी है तथा जो बिना देख-भाल कर चलता है, उसके पैरों तले कोई जीवन न भी मरे, तो भी वह हिंसक है, क्योंकि वह प्रमादी है। व्यावहारिक कानून भी इस तथ्य का समर्थन करता है। कारण यह है कि कषाय भाव या विचारों का घात करता है, इसे भाव-हिंसा कहते हैं । अन्य के इन्द्रियादि दश प्राणों का वियोग करना द्रव्य-हिंसा कहलाती है।
द्रव्य-हिंसा में प्राणियों को दुःख होता है, इसलिये वह अधर्म है। अतः गृहस्थव्यक्ति को देवता के लिये, मंत्र सिद्धि के लिये, अतिथि के लिये, पितरों के अर्पण के लिये, भोजन के लिये तथा भय से किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिये। हिंसक निरन्तर उद्वेगजनीय है, वह सदा बैर को बांधे रहता है। हिंसक व्यक्ति इस लोक में वध, बन्धन और क्लेश आदि को तो प्राप्त होता ही है तथा परलोक में भी अशुभ गति को प्राप्त होता है और निन्दनीय भी होता है, इसलिये हिंसा का त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार यत्नाचार, शुभ परिणाम, जीओ और जीने दो की भावना अहिंसा है। इससे न केवल पारस्परिक सहयोग व स्नेह की भावना, सहिष्णुता और अवसर की समानता में वृद्धि होती है, अपितु शोषण, हड़तालें, तोड़फोड़ व आगजनी आदि की कार्यवाहियां समाप्त होती हैं। फलस्वरूप कुल उत्पादन व राष्ट्रीय आय में वृद्धि होकर देश का तेजी से आर्थिक विकास होता है। अहिंसा के द्वारा मनुष्य की प्रतिष्ठा सम्भव है और अहिंसा ही अन्याय तथा अत्याचार से दीन दुर्बलों की रक्षा कर सकती है, यही विश्व के लिये सुखदायक है। नारी की भूमिका
स्त्रियों को भी भगवान महावीर ने पुरुषों की तरह ही धार्मिक अधिकार दिए हैं। उसे निरन्तर साधना द्वारा मोक्ष प्राप्ति तक का अधिकारी माना है। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या दूनी से अधिक थी। इसी तरह श्रावकों से श्राविकाओं की संख्या भी दुगुनी थी। लाखों स्त्रियों ने धर्म की आराधना करके सद्गति पाई। आज भी साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या अधिक है, और धर्म-प्रचार में भी वे काफी अग्रगण्य और
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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