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धार्मिक जीवन से बुराई का अन्त :
- आचार्यों का कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से धर्म नैतिक मूल्यों की ओर संकेत करता है और निश्चय दृष्टि से राग-द्वेष को छोड़कर निज आत्मा में वास कराता है। यह धर्म है जो जीवन की विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं भोग, त्याग, मानवीय आदर्श एवं मूल्यों को नियमबद्ध कर नियमितता प्रदान करता है। चूंकि गृहस्थ जीवन में अनेक प्रकार की असीम इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं, धर्म का उद्देश्य इन समन्त इच्छाओं और आवश्यकताओं को व्यवस्थित, नियमित एवं संयोजित करता है। डॉ. एस. राधाकृष्णन के शब्दों में धर्म वह अनुशासन है जो अन्तरात्मा को स्पर्श करता है और हमें बुराई और कुत्सित भाव से संघर्ष करने में सहायता देता है। काम, क्रोध और लोभ से हमारी रक्षा करता है, नैतिक बल को उन्मुक्त करता है, संसार को बचाने के महान् कार्य के लिये साहस प्रदान करता है। धार्मिक जीवन जीने से ही से बुराई का अन्त संभव है।
आज धर्म का स्थान अर्थ ने ले लिया है और वही जीवन का आधार बन गया है यही कारण है कि समस्याओं का जाल और भी अधिक भयंकर व जटिल होता जा रहा है। इसलिये आवश्यक है कि गृहस्थ जीवन में अर्थ के स्थान पर धर्म को पुनः स्थापित किया जाये, जिससे विश्व में स्वहित के साथ-साथ परिहत को बढ़ावा मिले। पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए व्यक्ति का आचारण धर्म व कानून सम्मत होना चाहिये। व्यक्ति का चारित्र ही देश की सुदृढ़ता का आधार स्तम्भ है। बुरे अर्थात् पापमय या गैरकानूनी कार्यों से बचना और अच्छे अर्थात् शुभ या कानून सम्मत कार्यों में प्रवृत्त होना ही चारित्र या आचार है। श्रावकों के लिये यह चारित्र बारह प्रकार का है- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। ये बारह व्रत स्वर्गरूपी राजमहल पर चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान हैं और नरकादि दुर्गतियों में जाने से रोकने वाले हैं।
द्वादशास्तमकमेतद्धि व्रतं स्यात् गृहमेधिनाम्। स्वर्गसौधस्य सोपानं पिधानमपि दुर्गतेः॥ - जिनसेन महापुराण 10/167
इन बारह व्रतों को धारण करने के इच्छुक पुरुष को व्रत धारण करने के पूर्व तीन मकार अर्थात् मद्य, मांस और मधु तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग करना और इस प्रकार अष्ट मूलगुणों का पालन करना आवश्यक है। अहिंसा का आधार : यलाचार
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- जहां प्रमाद का योग है वहां हिंसा है, चाहे जीव मरे
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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