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निश्चित रूप से अधिक मिलेगी जबकि भाव श्रावकों की संख्या अल्प ही रहेगी। आगमों में अनेक स्थलों पर श्रावकों के आचार का वर्णन प्राप्त होता है। उवासगदसांग सूत्र में तो श्रावकाचार का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। उनकी टीकाओं में, नियुक्ति में, चूर्णी में, आवश्यक सूत्र की नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णि में भी श्रावकाचार का विस्तार से वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् तत्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञभाष्य, सावयपण्णत्ति, विशेषावश्यक भाष्य, आचार्य हरिभद्रसूरि कृत धर्म बिन्दु, पंचाशक की अभयदेवसूरीकृत टीका, वंदुत्तु सूत्र एवं उसकी वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र में तथा धर्म संग्रह ग्रन्थों में विस्तार से श्रावक धर्म का वर्णन पाया गया है। कर्म ग्रन्थों में गुणस्थानकों के वर्णन में पंचम गुणस्थानक के रूप में श्रावक के आचार का वर्णन प्राप्त होता है। इस वर्णन के आधार पर श्रावक की अवस्था का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
जिसने मोह की प्रधान शक्ति दर्शन मोह को शिथिल कर दिया हो और उसके परिणाम स्वरूप सम्यक्दर्शन अर्थात् विवेक की प्राप्ति कर ली हो तथापि जब तक मोहनीय कर्म की चारित्र मोह की स्थिति को शिथिल करने में न आई हो तब तक स्वरूप में स्थिरता प्राप्त नहीं होती है। इसलिए विकासगामी आत्मा विवेक लाभ के पश्चात् चारित्र मोह की स्थिति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस प्रयास में अंशत: सफलता प्राप्त होते ही वह विरताविरत की स्थिति अर्थात् देशविरति-श्रावक की अवस्था को प्राप्त करता होता है। इस दशा में साधक अधिक शान्ति का अनुभव करता है। यद्यपि इस अवस्था में वह सम्पूर्ण पाप-व्यापार से मुक्त नहीं होता है, अत: इस अवस्था प्राप्त साधकों के त्याग की अपेक्षा से अनेक प्रकार हो सकते हैं। कोई साधक एक या एक से अधिक व्रत स्वीकार करता है और कोई साधक उससे भी आगे चलकर सभी पाप व्यापार का त्याग करता है, केवल अनुमति रूप व्यापार की ही छूट रखता है, इस प्रकार के साधक सबसे आगे निकलते हैं और जब वे अनुमति का भी त्याग कर देते हैं तब वे सर्वविरति की दशा को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार प्राचीन काल में श्रावक की अवस्था का वर्णन प्राप्त होता है।
सातवीं शती के पूर्व तक श्रावक के आचार का वर्णन मुख्य रूप से व्रत ग्रहण के आधार पर ही किया गया है। संबोध प्रकरण पंचाशक एवं धर्म बिन्दु में बताया गया है कि- १. रात्री भोजन का त्यागी, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान करने वाला, बावीस अभक्ष्य एवं बत्तीस अनन्तकाय का त्यागी, जिनेश्वर देव का पूजक, सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म को मानने वाला साधक जघन्य श्रावक है। २. बारह व्रतों में से कुछ व्रतों का पालन करने वाला मध्यम श्रावक है। ३. सभी व्रतों का आचरण करने वाला उत्कृष्ट श्रावक माना गया है । - आचार्य हरिभद्र ने इन व्रतों के साथ ही कई अनेक गुणों की आवश्यकता पर जोर
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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