Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 49
________________ यदि हम उपर्युक्त व्रत और दोषों के सन्दर्भ में विचार करें तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियां विद्यमान हैं और एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है । श्रावक के उपर्युक्त पांच अणुव्रतों और तीन गुण व्रतों का बहुत कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से है और हमने जब उनकी प्रासंगिकता की कोई चर्चा की है तो वह सामाजिक दृष्टि से ही की है। गृहस्थ उपासक के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से है। यद्यपि अतिथि-संविभाग व्रत की व्याख्या पुनः सामाजिक संदर्भ में की जा सकती है। ९. सामायिक व्रत- सामायिक समभाव की साधना है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षेपों और तनावों की स्थिति में जी रहा है, सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेशपरिवर्तन करके कुछ समय के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य रूप हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज हमारी सामायिक साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्रायः होती जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज के युग की महती आवश्यकता है। १०. देशावकाशिक व्रत-इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक रूप से गृहस्थजीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश मनाते हैं। देशावकाशिक व्रत इसी सप्ताह अवकाश का आध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ११. पौषोधोपवास - यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक जीवनी की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर नियंत्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते हैं। इसकी सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही आंकी जा सकती है। १२. अतिथि-संविभाग व्रत - अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त 44 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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