________________
१०. केष-वाणिज्य - बालों एवं रोम युक्त चमड़े का व्यापार।
११. यन्त्रपीड़नकर्म- यन्त्र, सांचे, कोल्हू आदि का व्यापार । उपलक्षणा से अस्त्रशस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित किया है।।
१२. नीलाच्छानकर्म - बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का व्यवसाय। १३. दावाग्निदापन - जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। १४. तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना !
१५. व्यभिचार - वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षणा से दुष्कर्मों द्वारा आजीविका का अर्जन करना ।।
आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे अनेक रूप सामने आये हैं जो अधिक अनैतिक
और हिंसक हैं। अत: इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों की नवीन तालिका बनाई जानी चाहिए।
८. अनर्थदण्ड परित्याग - मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे पाप कर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित साधन नहीं होता। इस निष्प्रयोजन किए जाने वाले पाप कर्मों से गृहस्थ उपासक को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्प्रयोजन हिंसा और असत्य सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप में पायी जाती हैं। जैसे स्नान में आवश्यकता से अधिक जल का व्यय करना। सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक साहित्य को पढ़ना आदि निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिंतन, पापकर्मोपदेश, हिंसक उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। इस व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार माने गये हैं
१. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएं करना। २. हाथ, मुँह, आँख, आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। ३. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बात करना। ४. अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और उन्हें दूसरों को देना। ५. आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 -
-
43
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org