Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा-रेखा निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे। व्यक्ति में यह संग्रह की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ-जीवन में संग्रह आवश्यक भी है। किन्तु यदि संग्रह-प्रवृत्ति को नियंत्रित नहीं किया जायेगा तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और वर्ग-संघर्ष अपरिहार्य हो जायेगा। परिग्रह-परिमाणमात्र या इच्छा परिमाणमात्र इसी संग्रह-प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व विवेक पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक सन्दर्भ में हमें व्यक्ति की आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह की कोई अधिकतम सीमा निर्धारण करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय है जिससे गरीब और अमीर के बीच खाई को पाटा जा सकता है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से आर्थिक प्रगति प्रभावित होगी। जैन धर्म अर्जन का उसी स्थिति में विरोधी है, जबकि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती हैं। हमारा आदर्श है- सौ हाथों से इकट्टा करो और हजार हाथों से बाट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे किन्तु वह न तो संग्रह के लिए हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोकमंगल के लिये और दीन दुःखियों की सेवा में हो। वर्तमान सन्दर्भ में इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते हैं तो या तो शासन हमें इसके लिए बाध्य करेगा या फिर अभावग्रस्त वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्भल जाना चाहिए। ६.दिक-परिमाणवत - तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राजा की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया, तो धन लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने । अर्थ लोलुपता तथा विषय वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश में भटकता है। दिक् परिमाणव्रत इसी भटकन को नियंत्रित करता है। गृहस्थ उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अर्थोपार्जन एवं विषय-भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसलिए उसे विविध दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है । यद्यपि वर्तमान सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का कार्यक्षेत्र सीमित हो जायेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से अवगत हैं वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने नहीं देना चाहता है। दूसरे यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र सीमित हो। अत: इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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