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४. माप-तौल की अप्रामाणिकता। ५. वस्तुओं में मिलावट करना।
उपयुक्त पांचों दुष्प्रवृत्तियां आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा दण्डनीय मानी जाती है। अतः इसका निषेध अप्रासंगिक या अव्यावहारिक नहीं है। वर्तमान युग में यह दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं, अतः इन नियमों का पालन अपेक्षित है।
४. स्वपत्नी-संतोष व्रत- गृहस्थोपासक की काम प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के हेतु इस व्रत का विधान किया है। यह यौन सम्बन्धों को नियंत्रित एवं परिष्कारित करता है और इस सन्दर्भ में सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध रखना जैन श्रावक के लिए निषिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह व्रत पति- पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पण भाव को सुदृढ़ करता है। जब भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशान्ति एवं दरार पैदा हो जाती है। इस व्रत के निम्न पांच अतिचार या दोष माने गये हैं१. अल्पवय की विवाहित स्त्री से अथवा समय विशेष के लिए ग्रहण की गई
स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से संभोग करना । अविवाहित स्त्री -जिसमें परस्त्री और वेश्या समाहित है, से यौन सम्बन्ध
स्थापित करना । ३. अप्राकृतिक साधनों से काम वासना को सन्तुष्ट करना, जैसे -हस्त-मैथुन,
गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि। ४. पर-विवाहकरण अर्थात स्व-संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध
करवाना। वर्तमान सन्दर्भ में इसकी व्याख्या यह भी हो सकती है कि एक
पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना । ५. काम भोग की तीव्र अभिलाषा।
उपयुक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक और वर्तमान सन्दर्भो में प्रासंगिक कहा जा सके ।
५. परिग्रह-परिमाण व्रत - इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पत्ति अर्थात् जमीन-जायदाद, बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य,
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__ तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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