Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 66
________________ निरर्थक आलोचनाओं से बचना होगा : यह सच है कि वर्तमान युग आलोचनाओं का युग है। जिस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत् में आलोचना रचना से कहीं अधिक आगे निकल गयी है उसी प्रकार हमारी श्रावक समाज में किसी सर्जनात्मक या रचनात्मक कार्य की उपेक्षा उन कार्यों की आलोचना अधिक महत्वपूर्ण मानी जा रही है। आलोचनाओं से निष्कर्ष क्या निकलता है? यह आज तक समझ में नहीं आया है। वैसे भी आज कल निन्दा और आलोचना से कोई नहीं घबराता है। हर प्रकार के आचार और विचार, क्रिया और काण्ड एक प्रकार से स्थायित्व ग्रहण कर चुके हैं। उन्हें बदलना सम्भव नहीं है। दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व विरोधी हो गया है। हम प्रत्येक उचित अनुचित का विरोध करके उसे रोकना चाहते हैं, यह हमारी ऐतिहासिक भूल है जिसे हम दुहराते जा रहे हैं। यदि वास्तव में हम कुछ करना चाहते हैं तो दोस्त बनना होगा, विरोधी नहीं। किसी काम को अपना बनाकर या खुद उसका बनकर ही हम उसे समझा सकते हैं। किसी को जड़ से नहीं उखाड़ा जा सकता और अनेकान्त स्वरूपी लोकतंत्र में ऐसा करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो वह परिष्कार जो स्थापित है, उसे स्वीकारते हुये उसमें परिष्कार करें। बस, यही एक मंत्र है जो कुछ रच सकता है। अफसोस तो इस बात का है कि हमारी निरर्थक आलोचनाओं का जाल हमें कुछ रचने के लिए अवकाश ही प्रदान नहीं करता। निरर्थक आलोचना सामाजिक समरसता स्थापित करने में एक बाधक तत्त्व है। हम सभी उससे बचें। आइये, सहनशील बनें हम सभी के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं, जिनसे हमें निपटना है। इसके लिए हम सभी अपनी-अपनी विचारधाराओं, परम्पराओं और सिद्धांतों को कायम रखते हुए तथा एक दूसरे के ऊपर उन्हें न थोपते हुए कम से कम हम उन बिन्दुओं पर एक रहें, जिन पर हम एक हैं। यहाँ व्यक्तिगत कषायों का अवकाश न रहे। अपने वैभव, अपनी संस्कृति और अपने धर्म की रक्षा के लिए यदि किसी बात पर हमारा सम्मान न हो, कहीं कुछ सहना भी पड़े तो सहें। कहीं कुछ सुनना भी पड़े तो सुने। हमें पद विसर्जित करना पड़े तो करें और अधिक क्या कहें ? कही झुकना भी पड़े तो झुकें बशर्ते कोई बड़ा काम न रुके । अभी मंजिल दूर है। भगवान की इतनी सी वाणी हमारे पास सुरक्षित है। जो कुछ सुरक्षित है वो पूरी समझ में नहीं आई है। हमारे सामने केवली कोई नहीं है। हम कैसे किसी को भी अन्तिम रूप से गलत या सही घोषित कर दें। ऐसा करना सत्य की खोज के प्रति बेमानी होगी। हमें सत्य के अनेक अनुद्घाटित पक्षों को खोजना है। अतः हम कि सी भी संभावना से इन्कार नहीं कर सकते और करना भी नहीं चाहिए। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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