________________
प्राप्ति के लिए समस्त जैन अवश्य एक हो परन्तु सर्वव्यापी सांस्कृतिक व पारम्परिक एकरूपता न जरूरी है और न सम्भव है। उदारवादी विचारों की कमी:
यदि हम सचमुच यह चाहते हैं कि विभिन्न पंथों और विचारों के मध्य सामाजिक समरसता कायम रहे तो हम सभी को विचारों में तो उदार बनना होगा और चरित्र में दृढ़। हमारी वैचारिक उदारता एवं सहिष्णुता हमें समाज के प्रत्येक वर्ग के बीच कषाय रहित सम्बन्ध बनाने में मदद देगी और हमारी चारित्रिक दृढ़ता हमें हमारी मूलभूत परम्पराओं से असंपृक्त नहीं होने देगी। यह दृष्टि हम सम्पूर्ण भारतीय समाज के मध्य भी निर्मित कर सकते हैं किन्तु दुर्भाग्यवश हम चरित्र में तो उदार हैं पर विचारों में कठोर हैं । हम अपनी जैन संस्कृति में ही विकसित अपने से इतर पंथ के प्रवचन नहीं सुन सकते, उनका साहित्य पढ़ नहीं सकते, उनके आगे विनयपूर्वक हाथ जोड़ने से हमें हमारा मोक्ष मार्ग बाधित होता दिखाई देता है, हम खुद हर बात पर मूलधारा से अलग होकर चलना चाहते हैं। सांस्कृतिक, वैचारिक और सैद्धांतिक विभिन्नतायें तो सदा से रही हैं और अगर इसका हम उज्ज्वल पक्ष देखें तो पायेंगे कि इन विभिन्नताओं ने हमें जड़ता से बचाया है। नये विचारों ने जन्म लेने के साथ संस्कृति को दिशा और गति ही प्रदान की है। अगर यह विभिन्नतायें न हों तो हम कूपमण्डूक हो जायेंगे। नयी सोच, नयी दिशा और नये परिवेश के लिए हमारे हर द्वार बन्द हो जायेंगे। हमें तो कितनी लम्बी दूरियां तय करनी है। हम सर्जन में इतने व्यस्त हों कि इन संकीर्ण विवादों के लिए हमारे पास अवकाश ही न रहे। पहले जरूरी है सामाजिक समरसता - ___ आज पूरे विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। इसे सभ्यता संघर्ष कहा जा रहा है। क्या सभ्यता संघर्ष करना सिखाती है? यह संघर्ष सभ्यताओं का नहीं, असभ्यताओं का है। हम निश्चित तौर पर चाहेंगे कि जैन सिद्धांत अनेकान्त इस संघर्ष का निदान बने। हम पूरे विश्व से कह सकते हैं कि अनेकान्त को अपनाओ, क्योंकि संयुक्त राष्ट्रसंघ वास्तव में अनेकान्त के धरातल पर ही स्थापित है पर विडम्बना यह है कि हम खुद उसे अपनाने में असमर्थ हैं। हम परम्परा और विकास के बीच संतुलन नहीं अपना पा रहे हैं। वैचारिक कठोरता सामाजिक समरसता स्थापित करने में बाधक बनी हुई है। जिनके पास इतना उदार हृदय ही न हो कि सबको सुन-पढ़ सके,स्वीकार करे या न करे पर सहन कर सके, उनसे यह उम्मीद कैसे की जाये कि वे जैन संस्कृति को कोई उन्नतिशील या व्यापक दिशा दे पायेंगे। इसलिए हमें हर कीमत पर यदि किसी बात पर सबसे पहले बल देना चाहिए तो वो हैं सामाजिक समरसता । इसके बिना हमारे सब सपने अधूरे हैं।
60
-
-
तुलसी प्रज्ञा अंक 129
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org