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शक्तिशाली शर्तों के अनुसार गढ़ने लगता है। मूल भावनाओं को क्षीण करने की कीमत पर भी अणुव्रतों में पांच सितारा होटल का डिनर, हवाई जहाज का शाकाहारी भोजन जो उसी पाकशाला में तैयार होता है जहाँ मांसाहार तैयार होता है । इस प्रकार का विकास सर्वांगीण विकास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मूल्यों के ह्रास की भूमिका पर उसके महल निर्मित हैं । अत: कहां हमें परम्परा से जुड़े रहना है और कहाँ अप्रयोजनभूत रूढ़ परम्परा में परिष्कार करके विकास करना है इसका विवेकपूर्वक निर्णय करना होगा, आधुनिक युग में श्रावकाचार के तहत हमें मात्र व्रत, उपवास इत्यादि पर ही विचार नहीं करना है बल्कि जैन श्रावकों के उन आचार विचारों पर भी चिंतन करना है जिनके कारण वे विभाजित होते चले जा रहे हैं ।
जड़ता से कौन बचता है ?
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समस्या यह है कि विकास हमें जड़ से उखाड़ रहा है और कई रूढ़ परम्परायें हमें जड़ बना रही हैं । न ही हम जड़ से उखड़ना चाहते हैं और न ही हम जड़ हो सकते हैं। प्राचीन परम्पराओं के मूल्यों की खुलकर होती त्रासदी झेल भी रहे हैं किन्तु उन सभी मूल्यों को समय सापेक्ष परिभाषित करने की जुर्रत भी नहीं कर पा रहे हैं । इसके दो कारण हैं - एक या तो हम समय नहीं लगाना चाहते या हममें इतनी सामर्थ्य नहीं है । युग इतना परिवर्तित हो गया और हमारे धार्मिक मूल्य, हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्य जीवन से कब कपूर की तरह उड़ गये, हमें पता ही नहीं चला। अब इस परिवर्तित युग के साथ हम तालमेल बिठाने की कोशिश में हैं ।
हमारे जीवन में जीवन्त कई आचार संहितायें आगे चल कर स्वतः रूढ़ और भ्रष्ट हो गयीं, इसका कारण यह है कि हमने स्वयं कभी परिवर्तन नहीं किया । यदि हम इस परिवर्तन को अपने हाथों से संवारते तब इसका कुछ और ही स्वरूप होता । यह परिवर्तन हमें चुभता नहीं । यह परिवर्तन हमें जड़ से नहीं काटता । हम इस सत्य को समझें कि परिवर्तन होता ही है, हम उसे चाहें अथवा नहीं और जिसे रोकना असम्भव है वहां हमें उसके साथ हो लेना चाहिए और उस परिवर्तन को एक निश्चित दिशा में मोड़ना चाहिए । तब वह परिवर्तन सुसंस्कृत होकर हमारी नयी व्याख्यायें प्रसंगानुकूल करेगा। श्रावक की द्वन्दात्मक आधुनिक बारह भावनायें -
परम्परा और आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फंसा हुआ आत्म-धर्म की बातों से दूर आत्म उन्मूलित श्रावक की मनोदशा एक विचित्र वातावरण को जन्म दे रही है परिस्थितिजन्य श्रावकाचार स्वतः उत्पन्न हो रहे हैं, उसका द्वन्द्वात्मक अस्तित्व नये मूल्यों
तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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