Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 61
________________ उसकी मर्यादा को अधिक करना, हफ्तों से फ्रिज में रखी किसी मिनरल वाटर से ज्यादा शुद्ध व अहिंसक होता है। प्याज, लहसुन, अदरक औषधियों के रूप में अनन्त गुणकारी शाकाहारी पदार्थ होते हुए भी हम इन्हें इसलिए नहीं खाते, क्योंकि इसमें अनन्त सूक्ष्म जीव होते हैं। जो हमें आँखों से दिखाई नहीं देते बल्कि भिण्डी,अमरूद आदि पदार्थों का प्रयोग हम हमेशा करते हैं जिनमें साक्षात् रेंगते हुए जीव तक दिखाई पड़ जाते हैं। अन्य और भी आचारगत समस्यायें हमारे सामने मुँह बाए खड़ी हैं जिनका वास्तव में कोई निश्चित व्यावहारिक समाधान हमारे पास नहीं है। इसमें या तो हम रूढ़ हो जाते हैं या फिर स्वच्छन्दी जबकि यह दोनों ही परिस्थितियाँ हमारा समाधान नहीं है । परम्परा कहती हैपानी छानो, उबालो, उसकी मर्यादा रखने के लिये उसमें लोंग इत्यादि डालो। विकास कहता है -पानी शुद्ध चाहिए न। मिनरल वाटर की बॉटल खरीदो और पियो, 100% शुद्धता की गारन्टी है किन्तु कीटनाशक हानिकारक दवाओं के प्रयोग ने हमें एक बार फिर अपनी परम्परा की ओर देखने पर विवश किया है। आये दिन हम और भी विवश होते चले जा रहे हैं। क्या समस्याएं जड़ हैं और विकास गतिमान : आज के सन्दर्भ में परम्परा और विकास प्रायः विपर्यायवाची शब्द माने जाने लगा है। उनका उपयोग दो विपरीत ध्रुवीय संप्रत्ययों के रूप में किया जाने लगा है। परम्पराओं को जड़ और विकास को गति मानना हमारी विचार प्रक्रिया में रूढ़ हो गया है। भारत में पाश्चात्य का घातक भूत बड़ी आसानी से जगह बना गया। हमने भी अपनी विरासत कुर्बान कर दी। एक तरह से यह हमारी निजी कमजोरियों का ही नतीजा है। यह सीधे सीधे उन समस्त बौद्धिक और सांस्कृतिक आधारों पर आघात करता है जिनसे जैन सिद्धांत और व्यक्ति के संस्कारों की रचना हुई है। हमारी अत्याधुनिकता ने धीरे-धीरे इन सभी स्रोतों को सुखा दिया है जिनके द्वारा एक श्रावक अपनी आत्मा, अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व को संजोता संभालता है। इसी कारण वर्तमान में हम भी दो नावों पर खड़े हुए एक ऐसे आत्म-उन्मूलित आदमी बन गये हैं जिसका एक भाग तो परम्परा से जुड़ा है और दूसरा भाग पश्चिम की आधुनिक शैली, चिंतन पद्धति और उनकी संस्कृति के प्रति अनुरक्त है। चूंकि इन दोनों नावों का आपस में किसी किस्म का कोई संबंध नहीं है, इसलिये हमारा पारम्परिक एवं सांस्कृतिक पक्ष उतना ही खोखला बन गया है जितना हमारा आधुनिक पक्ष कृत्रिम और दिखावटी। बाहर का प्रभाव हमारे मानस को जितना अधिक आत्मनिर्वासित कर रहा है, उतने ही अन्दरूनी ऊर्जा स्रोत सूखने लगे हैं। 56 । तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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