Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ पम्परायें तो ज़रूरी हैं: परम्परा और आधुनिक विकास इन दोनों की स्थिति अत्यंत द्वन्दात्मक है। जैन संस्कृति अतीत के गत प्रयोग जीवाश्म के रूप में प्रकट नहीं हुई है। उनमें प्रकट रूप में प्रच्छन्न ऊर्जा है। उसके बिम्ब, आचार, सिद्धांत और प्रतीक, मूल्य और अर्थ वर्तमान के लिए भी प्रासंगिक है और भविष्य के लिए भी । वर्तमान की जड़ें अतीत में होती हैं और भविष्य में वर्तमान का विस्तरण होता है। बदलते संदर्भों में भी हमारी परम्परा और संस्कृति समाज को जीवन क्षमता और दिशा संकेत देती है । यह बात चिन्तनीय है कि क्या विकास की प्रक्रिया पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्य बोधों से असंपृक्त रह सकती है ? अणुव्रतों - महाव्रतों की अस्मिता ? प्राय: जैन संस्कृति और धर्म के विचार के प्रसार में आचार को बाधक माना जा रहा है। अजैन ही क्या ? जैनों तक में यह कहते सुना जाता है कि कठोर आचार संहिताओं के कारण जैन-धर्म विश्वधर्म बनने से रह गया । ऐसी समस्याओं पर हमें यह कहना पड़ता है कि जैन Quality पर विश्वास करता है, Quantity पर नहीं । यही जैन धर्म की विशेषता है। हम यह कह कर सन्तुष्ट हो जाते हैं किन्तु आधुनिकता के बाद अब उत्तर आधुनिक में वैश्वीकरण के इस दौर में हमारे अणुव्रतों और महाव्रतों के सिद्धांत एक बार फिर अपनी अस्मिता पर प्रश्न चिह्न लगाये हमारे समक्ष खड़े हो गये हैं। जितनी तीव्रता से युग और वातावरण परिवर्तित हो रहा है उतनी तीव्रता से हम अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं। श्रावक की आचार मीमांसा और उत्तर आधुनिकता । वास्तविक व्रतों का स्रोत अतीत है और अतीत में आचार्यों द्वारा रचित शास्त्र, किन्तु इससे प्रेरणा लेने की भावना लुप्त हो रही है । किसी तरह उसके अंश बचे हैं जो नारों के रूप में आचार को वैचारिक आधार दे रहे हैं, व्यावहारिक नहीं, इसलिये आचार अपना ठोस आधार वर्तमान में तलाश रहा है जो वस्तुतः आधुनिकता के तत्त्वों से मिलकर बना होता है। उसे अपनी प्रासंगिकता आधुनिकता के सापेक्ष सिद्ध करनी पड़ती है, इसलिए वह स्वयं को आधुनिकता से ज्यादा श्रेष्ठ और उपयोगी बतलाता है । उसका आत्माभिमान कायम रहता है। यह उत्तर आधुनिक युग में भी आचार को यह दखलअंदाजी करने देता है, क्योंकि उसके विगत के साथ निरंतरता और उसके मूल्यों की आवश्यकता है। निरन्तरता की उपलब्धि होते ही दखलन्दाज़ी की प्रक्रिया उल्टी हो जाती है और यह युग आचार में हस्तक्षेप करने लगता है। वह अणुव्रतों और महाव्रतों को उत्तर आधुनिकता की तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005 Jain Education International : For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org

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