Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 68
________________ गृहस्थाचार-परिपालन में नारी की भूमिका श्रीमती डॉ. सरोज जैन श्रावक : अर्जन गुणों का जैन-धर्म का मर्म समभाव में समाया हुआ है। राग, द्वेष का न होना भी समभाव है। सारी धार्मिक क्रियायें इस समभाव प्राप्ति के लिए ही की जाती है। यह समभाव रत्नत्रय को धारण करने पर आयेगा। प्राणी मात्र में समानता का अनुभव करना ही अहिंसा है। अपरिग्रह का सिद्धान्त भी सामाजिक विषमता को हटाने के लिए ही है। भगवान महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त दूसरों के विचारों का भी समन्वय करना सिखाता है। यदि हम दूसरे के कथन की अपेक्षा ठीक से जान लें तो फिर संघर्ष को मौका नहीं मिलेगा। भगवान् महावीर ने एक और क्रान्तिकारी सन्देश प्रचारित किया कि वर्ण या जाति से कोई ऊंचा या नीचा नहीं होता। गुण ही मनुष्य को ऊंचा बनाते हैं। ब्राह्मण जाति में जन्म से कोई ऊंचा और शूद्र में जन्म लेने से नीचा बनता है, इस मान्यता का विरोध किया गया। व्यक्ति और जाति के स्थान पर गुणों को महत्त्व दिया गया। इसलिए हरिकेशी चंडाल जैन मुनि बनकर उच्च वर्ण वालों के लिए पूज्य बना। विशेषता जाति की नहीं, गुणों की है। श्रावक भी एक गुण है, जो जन्म से नहीं, व्रत ग्रहण करने से प्राप्त होगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। श्रावक रत्नत्रय को धारण करने की प्रारम्भिक भूमिका है। इसलिए आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक को रत्नों का पिटारा कहा है। श्रावक पद में 'श्र' अक्षर श्रद्धावान होने का सूचक है। तत्त्वों का श्रद्धान (सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान) अथवा आत्मा से शरीर, धनादि पर पदार्थों के भिन्न होने का श्रद्धान (विश्वास) ही सम्यग्दर्शन है। श्रावक पद का दूसरा अक्षर 'व' विवेकी और ज्ञानी होने का सूचक है। श्रावक को विवेकी होना चाहिये। श्रावक पद का तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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